राजन विरूप
आजकल हिंदी के कतिपय लेखकों में अमरीका के प्रति काफी रुझान देखा जा रहा है. कवि
कमलेश ने अमरीकी एजेंसी सीआईए के प्रति खासी प्रतिबद्धता दिखायी तो थानवी जैसे
स्वनामधन्य पत्रकारों ने खुल कर उनका समर्थन किया. साथ ही हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश
ने अज्ञेय जैसे रूपवादी कवि को मार्क्सवादी तक घोषित कर दिया. इस पर ओम थानवी ने
अपनी कलम उदय के हवाले कर दी. जो पहले ही पूंजीवादी मूल्यों को स्थापित करने के
चक्कर में घिस चुकी थी. इसी दौरान जनसत्ता में शंकर शरण का लेख प्रकाशमान
हुआ-‘क्या निराला प्रगतिवादी थे’. इस लेख में शंकर शरण ने निराला को खाकी निक्कर
पहनाने की पुरज़ोर कोशिश की है. इसी बीच एक खबर और प्रकाशमान हुई कि एक तालिबानी ने
मलाला को घर वापस आने की सलाह दी और ऐसा करते हुए उसने गांधी-ईसा मसीह का हवाला भी
दिया, गोकि बामियान में बुद्ध की प्रतिमा इन लोगों ने ही तोड़ी थी. इन सारी बातों
के बीच मैं इस इस नुक्ते पर फोकस करना चाहता हूँ कि वे ताकतें, जिनके खिलाफ़
मार्क्स-गांधी-ईसा-निराला का पूरा चिंतन है, खुद को उनके विचारों का वाहक होने का
दावा पेश कर रही है. दरअसल यह एक खास तरह की रणनीति है जिसके द्वारा वे संघर्षशील
तबकों में सेंधमारी करने की कोशिश कर रही हैं और जन प्रतीकों को अपने रंग में रंग
कर जनता को भरमाने की साजिश रच रही है. एक आसान उदाहरण से इस बात को और साफ किया
जा सकता है कि आरएसएस के शिशु मंदिर विद्यालयों में भगत सिंह से लेकर चन्द्रशेखर
आज़ाद और गांधी तक के फोटो लगे रहते हैं. जबकि ये लोग संघ की फासीवादी राजनीति की
हमेशा मुखालफत करते रहे. इन सारी बातों के बीच उदय प्रकाश की इस बात को भी अच्छी
तरह परखा जा सकता है- अंग्रेजी लाओ देश बचाओ. अभी हाल में जब उदय प्रकाश इस बात पर
मुग्ध हुए जा रहे थे और महिमामंडित कर रहे थे कि उनकी किताब का अनुवाद अमरीका में हुआ,
तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि जब उदय प्रकाश ने २००९ में योगी आदित्यनाथ
से पुरस्कार लिया तभी उन्हों ने अपनी विचारधारा का खुलासा कर दिया था. एक ज़माने
में पुरस्कारों को कुत्ते की हड्डी कहने वाले उदय ने ऐसा क्यों किया? इसके जबाब अब
और साफ हो गए हैं, जब वे अमरीकी प्रभा मंडल की आभा में विलीन हो चुके हैं और अपने
इस विलीनता पर गदगद हैं. उनके द्वारा अंग्रेजी की हिमायत भी उस निम्न पूंजीवादी
मनसिकता की और संकेत करती है जिसे उपभोक्ता संस्कृति बढ़ावा देती है. चेतन भगत और
आमीश त्रिपाठी जैसे करोड़पातिया लेखक इसी अमरीकी
संस्कृति की उपज हैं जिनके पास लोकप्रियता, पैसा और लेखक होने का सम्मान आसानी से
उपलब्ध है. एक लाख टके का सवाल यह है कि यदि अंग्रेजी ही देश बचा सकती है तो उदय
प्रकाश हिंदी में क्यों लिखते हैं. दरअसल पूंजी अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाती है
और सत्ता संरचना पूंजी की सेवा में उसकी संस्कृति के रक्षार्थ उदय प्रकाश जैसे
लेखकों को गड़प कर जाती है. साथ ही अंग्रेजी झंडाबरदारी उस औपनिवेशिक मनःस्थिति की
और संकेत करती है जो उदय प्रकाश जैसों पर आज भी हावी है. क्या इसे महज संयोग माना
जाए कि जब अमरीकी सांसद गुजरात के हिंसक विकास के माडल पर मुग्ध हैं तो पूर्वांचल
के मोदी कहे जाने वाले योगी आदित्यनाथ से पुरस्कृत उदय प्रकाश भी अमरीकी प्रभा
मंडल पर मुग्ध हैं.
योगी से पुरस्कार
वाले विवाद के दौरान उदय प्रकाश ने अपने प्रिय ब्लाग कबाड़खाना पर सम्मान ग्रहण का
विरोध करने वाले को ‘सक्रिय हिंदू, कट्टर वर्णाश्रम व्यवस्थावादी माइंडसेट से
प्रभावित सामंती, पूर्वआधुनिक और तमाम आस्थाओं और पहचानों के प्रति गहरी घृणा रखने
वाला कहा था. उदय प्रकाश को क्या यह याद दिलाने की जरुरत है ये सारे विशेषण मोदी
एंड कंपनी पर ज्यादा सटीक बैठते हैं. दूसरी बात यह कि अंग्रेजी के बहाने देशी
भाषाई आस्थाओं और पहचानों को हेच दिखाने की कोशिशें कैसे जायज हो सकतीं हैं?
अंग्रेजी से हासिल की गई यह कौन सी आधुनिकता है जो हिन्दुत्ववादी बर्बर सामंती
मूल्यों का पोषण करती है. उदय प्रकाश जब अंग्रेजी की हिमायत कर रहे हैं तो वे अपने
प्राच्यवादी माइंडसेट का खाका पेश कर रहें हैं जिसे उन्होंने पश्चिमी दुनिया की
अमरीकी पूंजीवादी संस्कृति से हासिल किया
है. उदय प्रकाश की एक कविता है-
“चिड़िया/पिंजड़े में
नहीं/पिजड़ा गुस्से में है/पिजड़ा गुस्से में है/आकाश खुश.”
अब जबकि चिड़िया
पिजड़े में है तो पिजड़ा खुश है और खेद है कि चिड़िया भी खुश है. पर आकाश अभ भी
गुस्से में है और तब तक गुस्से में रहेगा जब तक यह अमरीकी पिजड़ा टूटता नहीं.