(31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती के अवसर पर 'मुक्तिबोध' मंच द्वारा आयोजित
संगोष्ठी में प्रणयकृष्ण द्वारा दिया गया व्याख्यान. हिंदी विभाग इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, इलाहाबाद.)
साथियों,
यह
जो मुक्तिबोध मंच है उसकी सफलता पहले भी दिखाई पड़ी थी और आज भी है. मुक्तिबोध की
महान कविता ‘अंधेरे में’ का यह
पचासवां साल है. सन 57 से 62 तक के बीच
उन्होंने इस कविता को लिखा और जितना अंधेरा सन् 62 में था
उससे कहीं ज्यादा गहरा अंधेरा 2013 में है. तो यह होती है
बड़े और महान लेखकों की बड़ी दृष्टि. वे कोई नजूमी (भविष्यवक्ता) नहीं हैं कि बता
दें अब ऐसा होने वाला है. पर जो कुछ वे अपने वर्तमान में रच रहे हैं वह इतिहास की
गतियों से और इतिहास का मतलब यह मत समझें कि ऐसा ही हुआ था. इतिहास
का मतलब मनुष्य का इतिहास होता है. वह काल जिसके अंदर मनुष्य की गतिविधियां
संचालित होती हैं इतिहास कहलाता है. इसलिए इतिहास में अतीत भी होता है. वर्तमान भी
होता है और भविष्य भी होता है. इतिहास दृष्टि का मतलब ही यही होता है. तो इसी तरह
से प्रेमचंद एक विलक्षण इतिहास दृष्टि सम्पन्न रचनाकार थे. आचार्य शुक्ल ने अपने
इतिहास में लिखा है कि प्रेमचंद जी की कहानियों को पात्रों को देखते हुए, पढ़ते हुए लगता है कि हमने इन्हें कहीं देखा है. इसका मतलब कि प्रेमचंद वह
लिख रहे हैं जो समाज में होता है. जो दिखता है. रोज़-ब-रोज़ दिखता है. यानि प्रेमचंद
यथार्थवादी हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है उत्तर भारत के रीति-रिवाज,
उसका अर्थतंत्र, उसकी सामाजिक दशा, उसकी प्रकृति इन सबके बारे में सबसे प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करना हो तो
आप प्रेमचंद को जानिए. जरूरी नहीं यह सब इतिहास की पुस्तकों में मिल जाए. समाजशास्त्र या राजनीतिकि शास्त्र की पुस्तकों में मिल जाए. लेकिन
प्रेमचंद को यदि पढ़ लीजिएगा तो आपको उत्तर भारत की समग्र संरचना का ज्ञान हो जाएगा.
अपने समय और समाज दोनों पर गहराई के साथ पकड़ रखने वाले एक महान रचनाकर्मी के रूप
में उनके समकालीनों में भी उनकी पहचान थी. हमारे पहले के वक्ताओं ने जो कहा उनकी
भविष्य दृष्टि का सबसे बड़ा उदाहरण है कि उस समय का जो स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था
उसको वे कैसे देखते थे. आप उनको गांधीवादी कहिए, गांधीवाद से
चलकर मार्क्सवाद तक उनकी यात्रा को रेखांकित करते या और पहले जैसा रामायन ने कहा
कि भारतीय नवजारण या हिंदी नवजागरण के प्रोडक्ट के रूप में और फिर गांधीवाद से
होते हुए मार्क्सवाद तक वे आए. ठीक है दार्शनिक स्तर पर,
वैचारिक स्तर पर जो भी उनकी यात्राएं हैं उन यात्राओं को दिखाया जा सकता है. लेकिन
असली बात यह है कि हिंदुस्तान आज ऐसा क्यों है जैसा आज हम उसे देख रहे हैं. इसके
लिए हमें यह देखना होगा कि हिंदुस्तान की आजादी कैसे पाई गई?
जो मुल्क जिस तरह से, जिनके माध्यम से अपनी आजादी प्राप्त करता
है वैसा ही उसका आकार-प्रकार होता है और यही प्रेमचंद दिखला रहे थे. अगर गबन का
देवीदीन खटिक कहता है कि अरे सुराजियों जो सफेद झकझक टोपी पहने हुए घूम रहे हो तुम
भी कल आजादी के बाद अगर तुम्हारे नेतृत्व
में वह मिली तो वही सब काम नहीं करोगे क्या जो अंग्रेज करते हैं. यह बात प्रेमचंद 1932 में उठा रहे थे. जिस कहानी जिक्र अभी एक साथी ने किया उस कहानी में कल्याणी
यही कहती है कि ‘जान’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ जाएंगे तो क्या हो जाएगा. यह क्या है?
यह उस आजादी के आंदोलन की आलोचना है कि आप दरअसल जिनके खिलाफ लड़ रहे
हैं उनकी तरह बनना चाहते हैं. 1935 का गर्वन्मेंट इण्डिया
एक्ट में थोड़ी बहुत कुछ चीजें जोड़कर भारत संविधान बन गया. ब्यूरोक्रेसी वही रही.
राजे-रजवाड़े तक अपना रूप बदल कर वही रहे. और भारत में जो सरकार आई उसमें पहली ही
सरकार में नेहरू की मिनस्टरी में राजकुमारी अमृतकौर की तरह तमाम राजे-रजवाड़े शामिल
हो गए.
आज भी राजे-महाराजे मिलते
हैं मंत्रिमण्डलों में- उत्तर प्रदेश के मंत्रिमण्डल में,
बिहार के मंत्रिमण्डल में। केन्द्र में कभी इनका राज खत्म ही नहीं
हुआ. प्रेमचंद देख रहे हैं कि यह कौन सा स्वाधीनता संग्राम चल रहा है जिसके अंदर
इनका राज ही नहीं खत्म हो रहा है. जब हिंदू महासभा का अधिवेशन बनारस में होता है
प्रेमचंद देखने गए हुए थे और उसका उन्होंने वर्णन किया है कि पालकी पर चढ़कर लोग
चले आ रहे हैं. कोई बघ्घी पर बैठकर चला आ रहा है. प्रेमचंद कहते हैं ये इतने
बड़े-बड़े राजा-सामंत ये सब क्या भारत की आजादी के लिए इकट़ठा हुए हैं? इनके अधीन तो जनता खुद कराह रही है, इनके
अत्याचारों से. ये भारत को आजादी दिलाएंगे! प्रेमचंद वहां-वहां अंगुली रख रहे हैं
जहां पर आज भी भारत का शासक वर्ग खड़ा है. प्रेमचंद वह कह रहे थे जो आज भी सामने
दिख रहा है. सिफ वही नहीं कह रहे थे जो उनके समय में दिख रहा था. ठीक है रियासतें
मिटा दी गई लेकिन राजे-रजवाड़ों ने ग्रुप बनाकर अपनी-अपनी पार्टियां खड़ी की. जो
पहले से स्थापित पार्टियां थीं उसमें घुस गए. ‘गोदान’
के रायसाहब क्या कर रह हैं? राय साहबों की तो
बन आई. होरी की न तब पूछ थी न आज है. यही प्रेमचंद दिखा रहे हैं. भारत के
स्वाधीनता आंदोलन में जिन शक्तियों ने नेतृत्व किया और जिस तरीके से मोल-तोल करके
समझौते के रास्ते दो टुकड़ों में आजादी प्राप्त की गई, इस
परिघटना की आलोचना करने वाला प्रेमचंद से बड़ा साहित्य में कोई आलोचक नहीं हैं. और
मुझे लगता है सारे भारतीय साहित्य में नहीं है. इतनी साफ दृष्टि है प्रेमचंद की.
सन् 1947 में ही भारत विभाजित नहीं हुआ, बल्कि रोज-ब-रोज विभाजित हो रहा है. कभी सन् 1992 (बाबरी
मस्जिद विध्वंस) में विभाजित होता है और कभी 2002 (गुजरात
कांड) में भारत विभाजित होता है. हर शहर, हर गांव, हर मुहल्ला विभाजित होता है. प्रेमचंद यह सब देख रहे थे. जिस बहुलतावाद
(मल्टीकल्चरिज़्म) की बात की जा रही है वह अमरीका के लिए दूसरी चीज़ है. अमरीका का
इतिहास पांच सौ साल पुराना है और दजला-फरात नदी घाटी सभ्यता, नील नदी घाटी की सभ्यता तथा सिंधुघाटी सभ्यता का इतिहास हजारों साल पुराना
है. इसलिए जब आप उनके म्यूजियम में जाएंगे तो आप देखेंगे कि वे दो साल पहले की भी
किसी घटना की वस्तुओं को उठा कर म्यूजियम में रख देंगे. उनके यहां इतिहास बहुत तेज
चल रहा है. उनका मल्टीकल्चरिज्म कुछ और है भाई! मजदूर आए हैं
कहीं मैक्सिको से, कहीं यहां से, कहीं
वहां से सबको रहना है इसीलिए मल्टीकल्चरिज्म है. हिंदुस्तान में मल्टीकल्चरिज़्म
किसी मजबूरी के चलते नहीं पैदा हुआ. पंचपरमेश्वर कहानी के अलगू चौधरी और जुम्मन
मियां उनकी बहुसांस्कृतिकता किसी मजबूरी के चलते नहीं पैदा हुई है. बहुत सी ऐसी
चीजें जो विरासत में मिली थीं और औपनिवेशिक हस्तक्षेप के चलते खत्म हो रही थीं
प्रेमचंद उनकी रक्षा करते हैं और बहुत सी चीजें जिनका मुकम्मल होना अभी बाकी है
उनका सपना भी हमारे समने रखते हैं. सदियों से जो तमाम तरह का अत्याचार दलितों के,
स्त्रियों के खिलाफ चल रहा है उसके भी वे सबसे बड़े आलोचक हैं.
प्रेमचंद के यहां ये सारी चीजें कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं. हमारे यहां बहुत
सारे समाजसुधार आंदोलन हुए जिनके नेताओं ने अंग्रेजों से कहा कि आप महिलाओं के लिए
कानून बनाइये या अन्य दूसरी चीजों के लिए कानून बनाने की मांग की. प्रेमचंद किसी
कानून के सहारे नहीं है. अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने इन सारी चीजों की
आलोचना की और अपनी ही परंपरा में उनको ऐसी भी परंपरा मिलती है जो इस तरह के शोषण
की आलोचक है. प्रेमचंद की प्रासंगिकता इन्हीं वजहों खत्म नहीं होती है. असल में
समस्याओं के खत्म होने से प्रासंगिकता खत्म हो जाए तो बहुत अच्छा है. उन सारी
समस्याओं को यदि खत्म दिया जाय जिन्हें प्रेमचंद ने उठाया था और तब प्रेमचंद न भी
पढ़े जाएं तो कोई बात नहीं क्योंकि प्रेमचंद ने अपना ऐतिहासिक काम पूरा कर दिया. पर
ऐसा होता क्यों नहीं है? इसलिए प्रेमचंद सिर्फ अतीत बन कर
नहीं रह जाते क्योंकि वह कह रहें हैं कि ये समस्यायें बड़ी गहरी हैं. गरीब आदमी,
जिसको हमारे क्रांतिकारी कवि गोरख पाण्डे ने कहा है- होई हैं गरीब,
गरीब के सहाई, की एकता इस हद तक क्षत्-विक्षत्
कर दी गई है कि वह एक-दूसरे की सहायता के
लिए नहीं खड़ा होता है. वह संगठित हो न पाए इसमें औपनिवेशिक शासक और आज के भारत के शासक
भी कामयाब हो चुके हैं. सूरदास का जो कहना है कि ‘हम फिर
खेलेंगे’ वह सपना चरिचार्थ न होने पाये इसलिए गरीबों की एकता
जहां तक जिस हद तक तोड़ी जा सकती है उसकी पूरी तैयारी है. कोई सांसद कहता है 12 रूपये में खाना मिल रहा है. कोई नेता कहना है पांच रूपये में खाना मिल
जाएगा. एक सज्जन तो यहां तक फरमाते हैं कि एक रुपये में खाना मिल जाएगा, फर्क तो इससे पड़ता है कि आप क्या खाते हैं. क्या एक रुपये में खाना मिल
सकता है? गरीबी की रेखा रोज इधर-उधर हुआ करती है. एक आदमी को
जीने के लिए कितनी कैलोरी चाहिए यह वे लोग तय करते हैं जो वर्ल्ड बैंक से देश में
आते हैं और सीधे प्रधानमंत्री बन जाते हैं. यह देश वर्ल्ड बैंक के नौकरों को इससे
कम कोई पद देने को तैयार नहीं. अभी एक हालिया आंकड़े के अनुसार अगर आप महीने में छः
हजार रुपये खर्च कर सकते हैं तो आप भारत के पांच फीसदी लोगों में शामिल हैं. जो
लोग जेआरएफ़ पाते हैं वे भारत के पांच फीसदी लोगों में शामिल हैं और यह गलत आंकड़ा
नहीं है. 95 फीसदी ऐसे लोग हैं जो छः हजार रुपया भी प्रति
माह नहीं खर्च कर सकते हैं. तो वे गरीब, वे किसान, वह जनता गांधीवादी नेतृत्व के आंदोलन में बेचेहरा भीड़ के अलावा कुछ नहीं थी.
लड़ाई जो हुई है उसमें स्त्रियां भी खूब उतरती थी, किसान भी
उतरने थे, दलित भी उतरते थे. समाज में आदिवासी विद्रोहों की
पूरी श्रंखला है जो 1857 के पहले से मिलती है. लड़े तो सब लोग पर नेतृत्व किसका था? मुद्दे किसके थे? झण्डा किसका था और आजाद भारत की
कल्पना किसी थी? वह बिरला हाउस में बनती थी. वह राजा-महराजा
के घरों में बनती थी. तो जनता जो आजादी के आंदोलन में लड़ रही थी वह गांधी का एक
ऐसा चरित्र ऐसा जरूर था जिससे आकर्षित होती थी और उसको उम्मीद भी थी कि यह आदमी
हमारी तरह रहता है, किसानों की तरह है- बहुत कम कपड़े पहनता
है. लेकिन ओवरआल जो कांग्रेसी नेतृत्व था उसमें गांधी तो खुद ही अलग पड़ गये.
उत्तरोत्तर अलग पड़ते गए और अंत में मारे गए. अपने जीवन में ही वे अप्रासांगिक हो
लगभग. खुद उन्होंने तस्लीम किया है कि हमारी कोई सुनता नहीं है. जिस तरह से चल रहा
था कि ये सारे लोग लड़े थे लेकिन ये गुमसम, बेचेहरा भीड़ की
तरह. प्रेमचंद का महत्व ये है कि उस तबके के जो स्थानीय हिरोज (नायक) रहे होगे
उनपे निगाह थी उनकी. इसलिए सूरदास जैसा किरदार पैदा हुआ. आज के अस्मितावादी लोगों
को यह नहीं दिखता कि दलित भी लड़े थे आजादी के आंदोलन में. उनको लगता है कि सारे
दलित तभी से लड़ना शुरू किए हैं जब से मायावती और कांशीराम का उदय हुआ. वे यह भी
भूल जाते हैं कि रैदास भी कोई था और जो कुछ अपनी भक्ति वेदना में कह रहा था वह
खाली भक्ति की ही वेदना नहीं थी उसके भीतर का सामाजिक अन्तर्य क्या था. प्रेमचंद
ने देखा होगा कहीं न कहीं. 1857 के भी दलित हीरोज (नायक) थे.
आजादी के आंदोलन तक कोई ऐसा अध्याय नहीं है जिसके अंदर समाज के सबसे निचले तबके के
लोगों ने कहीं न कहीं पर कमान न संभाली रही हो. इसलिए सूरदास हवा में से नहीं पैदा
हुआ. सूरदास अपने समय का प्रतिनिधि था और उसकी त्रासदी सिर्फ उसके समय की ही
त्रासदी नहीं है आज के समय की भी त्रासदी है. यह प्रेमचंद दिखा सके हैं. प्रेमचंद
के बारे में सबको छूट है कि वे अलग-अलग अस्मिताओं की दृष्टि से उनको देखें. लेकिन
आप देखिए कि आगे चलकर शानी ने एक सवाल उठाया कि हिंदी के कथा साहित्य से
अल्पसंख्यक पात्र क्यों गायब हो गए. प्रेमचंद में तो भरमार है. हामिद किसी को
भूलेगा क्या? और हामिद कोई अल्पसंख्यक के रूप में थोड़े ही
आता है, वह गहन मानवीय पात्र है. आज आप देखना भी चाहेंगे तो
सामान्य मानवता से चाल कर सिर्फ उसकी अस्मिता नहीं निकलेगी. उस चलनी में से भी
उसकी मानवता टपक के भी नीचे आ जाएगी और यहाँ प्रेमचंद को सिर्फ अस्मिता के सवाल से
नहीं जोड़ सकते हैं. वहां इतनी गहरी मानवता के भी प्रतीक हैं क्योंकि मानवता तो
किसी एक तबके में वास करती नहीं है. ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद को सिर्फ राजनीतिक
विचारधारा वाले लोग ही या सामाजिक अस्मिताओं के लोग ही क्रिटिकल दृष्टिकोण से
देखते हैं. हिंदी कथा साहित्य के अंदर प्रेमचंद को देखने वाले लोगों में ऐसे लोग
रहे हैं जिन्होंने कहा कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं. उनका यथार्थवाद भी पुराना पड़
गया है. अब तो कहानी में एकदम नई तरह की चीजें आनी चाहिए. एक माहौल प्रमुख हो गया
है कि पुराने ढंग से वो कथानक, चरित्र,
चित्रण वगैरह के ढंग से कहानी नहीं बन सकती. प्रेमचंद पुराने पड़ गए. यह नई कहानी
वालों ने बड़े जोर-शोर से कहा. निर्मल वर्मा ने प्रेमचंद के बारे में कहा कि
प्रेमचंद तो पैसे के दुश्मन थे क्योंकि जैनेन्द्र ने कहीं लिखा था कि वे पैसे के
दुश्मन थे. उसके आधार निर्मल वर्मा गरीबी को महिमा मंडिन करते हैं और यह दिखाने की
कोशिश करते हैं कि प्रेमचंद तो उस तरह के व्यक्ति थे...एकदम गांधीयन फ्रेम में...
कि जितना मिल जाए उसी में संतोष कर लेना चाहिए- मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूख जाए.
अरे भाई, प्रेमचंद पैसे के दुश्मन होते तो सबसे अधिक सामंत
ही खुश होते उनसे. सबसे अधिक पूंजीपति उनसे खुश होते. प्रेमचंद पैसे के दुश्मन
नहीं थे. पैसा किनके पास है और वास्तव में किनके पास होना चाहिए इसको लेकर गंभीर
आलोचना दृष्टि रखने वाले थे प्रेमचंद. प्रेमचंद को जैनेन्द्र ने गांधीवादी नजरिए
से समझा और फिर उसी पर निर्मल जी ने मुहर लगाई. निर्मल जी के यहाँ खोजिए, एक किसान नहीं मिलेगा. हमें याद नहीं आता. मैं कम पढ़ा-लिखा हो सकता हूँ पर
किसी को याद आता हो तो बताए. जिस ‘एलिएनेशन’ की बात की जा रही है. ‘एलिएनेशन’ का मतलब ‘अलगाव’, हम अपने
भीतर ही अपने से ही अलग हो जाते हैं. आत्मनिर्वासन और शेष समाज से भी निर्वासन, नितांत अकेले पड़ जाना. ऐसी परिस्थितियां जाती हैं. कफ़न इसी की कहानी है.
अन्य चीजों की भी कहानी है लेकिन इस आत्मनिर्वासन की भी कहानी है. एक बार केदारनाथ
अग्रवाल ने कहीं कहा था कि आजकल नई कविता के जमाने में अस्तित्ववाद बहुत चलन में
है. अस्तित्ववाद का ‘एलीनेशन’ दूसरे
किस्म का है वह मनुष्य मात्र के अस्तित्व में ही ‘एलीनेशन’ देखते हैं. तो केदारनाथ जी ने कहा कि ये प्रोफेसर जो चार-चार हजार रुपये
पाते हैं इनको कैसा ऐलीनेशन है और जो किसान इनसे बहुत कम में रहता है उसको कोई
एलीनेशन नहीं है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की
है वह सिर्फ गरीबी या कर्ज के नाते नहीं की है. वह उस नितांत अकेलेपन, निस्सहायता और ‘कुछ नहीं हो सकता’ के भाव से ग्रस्त होने के बाद की है. सचमुच किसान इस देश में आत्महत्या
नहीं करता था. पूरा साहित्य उठाकर देख लीजिए-भूख से मर गए, अकाल
से मर गए, लाखों-लाख लोग मर गए लेकिन किसान की आत्महत्या
नहीं दिखती है. आजाद भारत की तथा रीगन और थैचर की बनाई हुई अर्थनीतियां जो इस देश
में प्रत्यारोपित की गई यह उनका तोहफा है हिंदुस्तान के लोगों को कि आज किसान भी
हताशा से, अकेलेपन से आत्महत्या कर रहा है. गृहणियां कर रही
हैं. नौजवान कर रहे हैं. आउट सोर्सिंग कम्पनियों में काम करने वाले नौजवान कर रहे
हैं तो समझ में आता है. किसान क्रेडिट कार्ड क्यूं लाया गया? सिर्फ इस वजह से कि आज बाजार चलता रहे और इसलिए
अपने भविष्य की पूँजी को आज ही खा जाओ. भजा-भजा कर खा गए उसके बाद तो भविष्य
अंधकार मय है ही, वर्तमान में भी जी नहीं पा रहे हैं. क्या
करेगा आदमी? मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ. मेरे साथ रहे
हैं. जो ड्रग एडिक्ट हो गए. घर-बार बेच दिया. किसी लायक नहीं रहे. एक पूरा का पूरा
ग्लोबल फाइनेन्स सिस्टम है जिसके तहत लोगों को आज के बाजार की सेवा के लिए सब कुछ
न्योछावर कर देने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. किसान के सामने तो और भी कुछ
नहीं है. शहर के रहने वाले तब भी सोचते हैं कि कुछ न कुछ कर लेगें. पर किसान के पास
कुछ नहीं है. कपास किसानों के खेतों में रखे-रखे जल गया. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय
समझौते ऐसे हैं कि आपके कपास लिए नहीं जाएंगे. हुक्मरानों ने कहा कपास उगाओ! गेहूँ, चावल उगाना छोड़ो. किसानों ने टर्मिनेटर
बीजों के लिए कर्ज लिया और जो उगाया उसकी कहीं अंतरराष्ट्रीय खपत नहीं है और उस
किसान के बारे में कोई बात नहीं होगी. 75 फीसदी हिंदुस्तान
के लोग भले ही किसानी न करते हों लेकिन किसानी पर आश्रित हैं और इन बातों को लेकर
कथा-साहित्य में कुछ नहीं लिखा जाएगा. कथा-साहित्य सिर्फ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों
पर केन्द्रित रहेगा. तीन लाख किसानों को लेकर सरकार चिंता न करे, अलग बात है. परन्तु साहित्य क्यों
नहीं करेगा. उसका तो काम ही यही है जिसकी कोई चिंता न करे उनकी चिंता साहित्य करता
है. तभी वह प्रतिरोध को रचता है. यहाँ प्रेमचंद उनके साथ आज भी खड़े हैं. हमको
सोचना पड़ेगा. हम लोग साहित्य, संस्कृति आदि करते हैं और हम
कहाँ खड़े हैं. भारत के पांच फीसदी सफल लोगों के बीच या प्रेमचंद और उनके होरी के
साथ.