(यहां आलोक कुमार श्रीवास्तव द्वारा कुछ स्फुट विचार
प्रस्तुत हैं. ये विचार अकादमिक ढंग से किए जाने वाले चिंतन की उपज न हो कर उस
चिंता की उपज हैं जो हर दिन सवालों के रूप में आम आदमी के सामने उपस्थित होते रहते
हैं. जाहिर है ये सवाल आदमी के ‘सामने’ भी होते हैं और आदमी के ‘भीतर’ भी. आलोक
कुमार श्रीवास्तव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और लंबे समय तक आइसा
में काम भी किया है. वैचारिक पक्षधरता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्व की खास पहचान है.
आपके द्वारा किए गए अनुवाद बेहद पठनीय होते हैं. फिलहाल आप भारतीय रिजर्व बैंक में
सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं.)
एक
20 अक्टूबर 2013 को दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव में स्वतंत्र
फिल्मकार नकुल साहनी द्वारा कुछ वीडियो क्लिपिंग्स प्रदर्शित की गयीं। ‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’ नाम से बनी इन वीडियो क्लिपिंग्स (न्यूज़ वीडियो) में उत्तर प्रदेश के
मुजफ्फरनगर जिले के लोनी कस्बे के एक मुस्लिम राहत शिविर में मौजूद लोगों के साथ
बातचीत को दिखाया गया है। आज़मगढ़ के नेहरू हाल में मौजूद सैकड़ों लोगों ने इन्हें
देखा। बातचीत को देखना और सुनना एक पीड़ादायी अनुभव रहा, लेकिन ताज्जुब की बात ये रही कि इस प्रदर्शन के बाद आयोजित खुली चर्चा के
दौरान एक दर्शक ने नकुल साहनी पर एकतरफा सच दिखाने का आरोप लगाया। बेचारे नकुल
साहनी क्या कहते, हम सब ऐसे आरोपों के सामने
बेबस ही रह जाते हैं।
दो
मेरी चार साल की बेटी परी बड़ी गम्भीरता के साथ सोचते-सोचते
कहती है - पापा, मेरी समझ में नहीं आता कि ये लड़के इतनी शैतानी क्यों करते हैं। मैं तो
बिल्कुल शैतानी नहीं करती। और भी लड़कियों के नाम गिनाती है – साची, तूली, भव्या, ध्याना, दीप्ति, सानवी ..... कोई भी लड़की
इतना नहीं चिल्लाती जितना अभिजीत चिल्लाता है। अभिजीत मेरे और दीप्ति के खिलौने
हमेशा छीन क्यों लेता है, किसी की बात क्यों नहीं
सुनता? उसके मम्मी-पापा भी उसको क्यों नहीं समझाते? कार्तिक भैया इतना जिद्दी क्यों है? मैं अंधेरे में अवि भैया, अवि भैया चिल्लाती रही लेकिन अवि भैया क्यों नहीं बोला? कवि ने मुझे धक्का मारकर क्यों गिरा दिया? परी के ये सवाल भी मुझे बेबस ही कर देते हैं।
तीन
देश का युवा परिवर्तन की चाह करने लगा है। अब उसके
पास परिवर्तन की चाह करने के बहुत ज़बरदस्त कारण हैं। उसके भीतर बेचैनी है, कशमकश है, मगर उसे फैसले पर पहुँचने की जल्दी भी है।
जवानी में धैर्य की कमी अक्सर तकलीफ का सबब बनती है। कहा जा रहा है कि देश को कड़े फैसले
लेने मे सक्षम प्रधानमंत्री चाहिए। जाहिर है इस समय भारत में एक ही आदमी प्रधानमंत्री है - नरेंद्र मोदी। एक नौजवान ने ऐसे ही
मुझसे कहा - सर, नरेंद्र मोदी का मतलब सिर्फ गोधरा ही नहीं
होता। आप उसके काम देखिए... खूब देखे मैंने उसके काम। गोधरा के बाद मैंने
मुजफ्फरनगर भी देख लिया। विकास के झूठे आंकड़ों की पोल भी खूब खुली। गुलेल.कॉम की
जासूसी वाली स्टोरी भी इसी मौके पर सामने आ चुकी है। इस पर भी मेरा नौजवान दोस्त
मुझसे सवाल करता है - सर, मुझे उस एक व्यक्ति का नाम बताइये,
जिसे इस देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए। मैं फिर बेबस हूँ। लाजवाब
हूँ।
चार
इस मनहूस साल में
बहुत कुछ दुखद घटा हिन्दी अदब की दुनिया में। कंवल भारती को सत्ता तंत्र द्वारा परेशान किए जाने
के बाद उन्होंने बचाव के लिए कांग्रेस की शरण ले ली। दलित विमर्श के लिए ये बड़े नुकसान
वाली बात थी। इससे भी बहुत बड़ा नुकसान अभी-अभी हुआ पूरे हिन्दी साहित्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि
की मृत्यु के रूप में। एक दलित साथी ने अगले दिन एक सवाल किया - वाल्मीकि जी की
मृत्यु का समाचार अखबारों में क्यों नहीं आया सर? .... यह भी ऐसा ही सवाल
है जिसका जवाब बनाना आसान नहीं है।
पाँच
सारे देश की भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में सचिन को भारत
रत्न देने पर इतना हल्ला क्यों मचा रहे हैं कुछ लोग? ......यह एक बेहूदा सवाल है। अब तक
मैं बहुत चुप रह चुका। अब हो सकता है बोल ही पड़ूँ।
तो ये पाँच चीजें हैं - उग्र हिन्दू
राष्ट्र के लिए अल्पसंख्यक (मुस्लिम) विरोध, पुरुष सत्ता का वर्चस्व यानी लैंगिक भेदभाव,
सांप्रदायिक राजनीति, दलित की उपेक्षा और
तिरस्कार यानी (मीडिया की) सवर्ण मानसिकता; और आक्रामक
पूंजीवाद। बड़े संघर्ष की जरूरत है इन पांचों चीजों को खत्म करने के लिए। हमें तैयार
रहना है। हर मोर्चे पर लड़ना है धैर्य के साथ। जवानी के जोश में होश खोए बगैर।
खासकर स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और
दलितों को। और पूंजीवाद के
खिलाफ तो पूरी दुनियाँ को खड़े होना है। भारत के मध्यवर्ग के सामने फिलहाल सबसे बड़ा
काम यही है। हम कब तक चुप और निरुत्तर रहेंगे अपनी बेटियों, अपने
मुस्लिम और दलित मित्रों के सवालों के सामने ? और हम कब
तक देश को कॉर्पोरेट पूंजी के हाथ की कठपुतली बने रहने देंगे?