Wednesday, 23 April 2014

बदलने का स्वांग


      
     हमारी जो वर्तमान औद्योगिक संरचना है उसमें सूचनाओं को एक मूल्य की तरह विकसित किया जा रहा है। ‘सूचना समाज’ जैसी संज्ञाएँ आखिर क्या प्रतिध्वनित करती हैं? निश्चय ही इनकी ध्वनि एक ऐसे समाज की अवधारणा को स्थापित करने की है जिसमें ‘सूचना’ एक मूल्य बन जाती है और इन मूल्यों को निरंतरता में प्राप्त करना ही सही मायने में सामाजिकता का, सामाजिक होने का पर्याय बन जाता है। इस प्रवृत्ति के प्रसार में मीडिया, खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया, जो अत्याधुनिक  संचार उपग्रहों के निर्माण के उपरांत अस्तित्व में आ आया है और जिसकी वजह से तथाकथित क्रांति-  संचार क्रांति संभव हुई है, की पर्याप्त भूमिका है। सूचना तकनीक में पर्याप्त वैज्ञानिक शोध और  विकास के चलते यह नित विकासमान संभावनाशील उद्योग है। इस उद्योग के पीछे की प्रमुख ताकत तमाम किस्म के उत्पादों का विज्ञापन है। यही कारण है कि फेसबुक जैसी सूचना संस्था के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग विगत दस वर्षों में ही विश्व के सर्वाधिक धनिकों की सूची में शुमार हो गए हैं। चूंकि अभी अन्य क्षेत्रों के मुकाबले सूचना क्षेत्र में वैज्ञानिकों को सफलता अधिक मिली है अतएव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इसी क्षेत्र को विकसित करने और इसी दायरे में अपने लिए बेहतर संभावनाओं को तलाशने में लगी हुई है।
     

     पिष्टपेषण अंतत: अरुचि पैदा करता है। इसलिए ऐसी स्थिति में हमेशा कुछ नया करने की आवश्यकता पड़ती है। किंतु अनेक प्रकार की जड़ताएं जिस समाज का स्थायी भाव बन चुकी हों और उन जड़ताओं के खिलाफ संघर्ष करने वालों के प्रति व्यापारिक शक्तियां पुरजोर तरीके से सक्रिय हों तब सूचना-समाज की संचालक इन शक्तियों के पास कुछ नया करने का स्वांग ही शेष बचता है। हरदम सूचना-समाज में कुछ नया करने के चक्कर में वही खटराग बजता रहता है। भारतीय मीडिया भी इस नकारात्मक प्रवृत्ति का बेतरह शिकार है। कभी-कभी तो साफतौर पर नया करने की इस नकारात्मकता के चलते पत्रकारों को महिलाओं तक से दुर्व्यवहार करने के लिए अपराधियों को उकसाते देखा जा सकता है। और जब भी इन तमाम बातों से संदर्भित प्रश्न उठाए जाते हैं तब तुरंत ही यह लोकतंत्र के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने लगता है। भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया में ‘प्राइम टाइम’ पर चलने वाली तमाम बहसों में आत्म निरीक्षण या आत्मालोचन के मुद्दे का सर्वथा अभाव दिखता है। साफ है कि मीडिया का यह चरित्र उसकी इस मानसिकता को प्रकट करता है कि वह सार्वभौम और मूल्यांकन से परे है। अभी जब पिछले दिनों आसाराम के काले कारनामों का भंडाफोड़ हुआ तब भारत के प्रमुख टी.वी. चैनलों ने स्क्रीन पर ऐसा मोर्चा खोला कि मानों वह भारतीय समाज के धार्मिक अंधविश्वास और पोंगापंथ के विरुद्ध कटिबद्ध है तथा वैज्ञानिक चेतना का पक्षधर है। लेकिन इस ‘मसाले’ के बासी पड़ते ही वह फिर मोदियापे के रैली-राग पर था। इस घटना से पहले और बाद तक लगातार टी.वी. चैनलों पर अनेक स्वयंभू बाबा मनुष्य और मनुष्यता का भविष्य बांच रहे हैं। लगभग हर चैनल पर आसन जमाए बाबा तरह-तरह के टोने-टोटके बेच रहे हैं। जिस देश में लोकतंत्र का स्तम्भ ही वैज्ञानिकता की परवा न कर श्रीयंत्र, भविष्यफल बताने वाली किताबें जैसी चीजें बेच रहा हो, उस देश में दाभोलकर जैसे लोगों की हत्या सिर्फ कानून व्यवस्था पर ही प्रश्न नहीं है।


     भारतीय मीडिया उन नगरीय क्षेत्रों तक सीमित है जहां परिवहन, बिजली आदि आधारभूत संरचनाओं का विकास एक न्यूनतम स्तर तक हो चुका है। (भारतीय गांवों के पिछड़ेपन को देखते हुए) यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इंटरनेट भी भारतीय मीडिया की तरह इस सीमांकन से परे नहीं है। वास्तव में यहां मीडिया नगरीय सूचना संसार का प्रतिनिधित्व करता है और मीडिया का यही स्वरूप उसके बोध को भी नियंत्रित करता है जिसकी वजह से वे तमाम ‘जेनुइन’ बहसें उसकी चमकती स्क्रीन से गायब हैं जिनसे देश के गरीब-गुरबों की ज़िंदगी के सवाल हल होने हैं। इसका सबसे बड़ा जीता-जगाता प्रमाण बिहार हाईकोर्ट का कुछ महीने पहले आया वह फैसला है जहां बिहार में लगभग चार दर्जन लोगों की एक साथ हत्या करने वाले दोषियों को बरी कर दिया गया तथा इतनी बड़ी और मानीखेज घटना को किसी टी.वी. चैनल के ‘प्राइम टाइम’ में कोई जगह नहीं मिली। हमारा मीडिया लगातार पोंगापंथ का गढ़ बनता जा रहा है। मीडिया के बारे में एक जुमला है कि वे खबरों के धंधे में नहीं विज्ञापन के धंधे में हैं। जबकि हकीकत यह है कि मीडिया विज्ञापन के धंधे में तो है ही, खबरों के धंधे में भी है. क्यों। वहां हर घटित एक सूचना मात्र है, कच्चा माल है। जिन्हें  पुनरुत्पादित भर कर देना है, मॉडीफाई कर देना है। चाहे घटना विशेष में निहित संवेदनशीलता तिरोहित ही क्यों न हो जाए। बलात्कार के दृश्य के तुरंत बाद आपको ‘गोरेपन का अहसास’ कराया जाने लगता है। हत्या के दृश्य के तुरंत बाद आपको किसी खुशबूदार परफ्यूम की खूबियों से वाकिफ कराने की कोशिश की जाने लगती है। यह गजब का सौंदर्यबोध है। वस्तुत: यह संवेदनात्मक असंगति उस मुनाफाखोर पद्धति से जन्मी है जहां संवेदनाओं को बाजार के अनुकूल ढालने की कोशिश की जा रही है। जहां ‘56 इंच चौड़े सीने’ वाले मर्दवादी बयान टी.वी. स्क्रीन पर फुलझड़ी की तरह छूटते नजर आते हैं। लेकिन उनकी कोई मजम्मत नहीं होती। बदलता कुछ नहीं है। बस बदलने का एक स्वांग चलता रहता है। यही हमारी मीडिया का, व्यवस्था का चरित्र बन गया है।
                                                    (समकालीन जनमत, अप्रैल, 2014)