Monday, 10 February 2014

कथामंच में दिए गए वक्तव्यों के अंश...



कथामंच में दिए गए वक्तव्यों के अंश...
(जन संस्कृति मंच के कथा समूह द्वारा आयोजित पहला कार्यक्रम ‘कथा मंच’ में वक्ताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य. कार्यक्रम स्थल: निराला सभागार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहबाद, उत्तर प्रदेश)


21/12/2013
प्रथम सत्र:
संचालन-प्रणय कृष्ण
अहमद सगीर- आज की उर्दू कहानियों में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध चेतना दिखाई देती है. इनमें औरत की आजादी,  आज के माहौल के बारूदी होने का जिक्र है. 2013 की उर्दू की कहानियों में वैज्ञानिक प्रगति के अतिवाद और मनुष्य को मशीन में बदलने की तथा गांवों के बाजार में बदलने की चिंता साफ दिखाई देती है.

कैलाश बनवासी- यह हिंदी कहानी की विविधताओं वाला दौर है और कई धाराओं के लेखक हैं और विभिन्न रुचियों वाली पत्र-पत्रिकाएँ हैं जिनमे खेमेबाजी वाली बात बढ़ चुकी है. पहले के दौर में यह सब कितना था यह सब मुझे नहीं मालूम लेकिन इधर इस खेमेबंदी में अधिक मजबूती आई है. यह इसलिए भी होता है कि लेखक अपनी सुविधा के अनुसार जगह तलाशने लगता है और फिर वहां उस मैनेजमेंट का हिस्सा बन जाता है तथा उसके (संसथान विशेषके) प्रोजेक्ट के तहत उसकी जो चीजें हैं वे निकल कर आने लगती हैं.
कहानी में विचार-शून्यता और विचारहीनता और शब्दों की बाजीगरी बढ़ी है. ये 2000 के बाद जो एक कथा पीढ़ी उभरी है, हालांकि उन्होंने अच्छी कहानियां भी लिखी हैं, में खास तौर पर यह दिखाई दे रहा है. पुरानी पीढ़ी के मुकाबले नई पीढ़ी कहानी लेखन को टेबल राइटिंग के रूप में ले रही है.

माहतलत- आज की कहानियां समस्याओं से ग्रस्त कहानियां हैं. जिनमें लेखक उन मुद्दों को उठता है वो हैं- धार्मिक आडम्बर और जातिगत समस्याएँ, आतंकवाद , बेरोजगारी, स्वाथ्य सम्बन्धी समस्याएँ, अत्याचार मतलब ऐसे मुद्दों पर कहानियां लिखी गई हैं जिन्हें पढ़ने के बाद यह लगता है कि ये कहानियां खरी उतर रही हैं.

बृजेश यादव- प्रगतिशील समीक्षा के नाम पर भी आज की तारीख में जिस औसत-बोध से हमारी आलोचना संचालित है, जो औसत-बोध कहानी पाठकों का भी है. वह औसत-बोध छोटे किसान का औसत-बोध है. वह मध्यवर्गीय चेतना से संचालित है. विश्वनाथ त्रिपाठी जी प्रगतिशील समीक्षक हैं लेकिन उनकी अपनी जो भाववादी मांग है किसान क्रांति के प्रति, वह पहले से माने हुए तर्क और पार्टी की डिमांड से संचालित होने के कारण आखिरी छलांग नामक कहानी में किसान की दुर्दशा के बयान को इसलिए वो नहीं पकड़ पाते क्योंकि उनको यह कहना है कि मजदूर क्रांति इस देश में हो ही नहीं सकती...वस्तुत: समस्या यह है कि किसान की भूमिका का मूल्यांकन करते वक्त किसान को सर्वहारा कि जगह रख कर बदलाव की जिस तरह कल्पना की जाती है, वहां किसान और मजदूर को आपस में गड्ड-मड्ड करके किसान की समस्या को उसके भौतिक यथार्थ से अलग सैधांतिक (धारणागत) मैटेरियल सेन्स से समझा जाता है.

सुरेश कांटक- आज जो लिखा जा रहा है वह समाज से कहाँ तक जुड़ा हुआ है. हम देख रहे हैं हमारा समय किस दौर से गुजर रहा है समय हमारा किस चीज की मांग कर रहा है और वह रचना जो समय संदर्भ को लेकर, समाज संदर्भ को लेकर खरी नहीं उतरती वह कहीं न कहीं समय से बेईमानी करती है. क्या हमारा अपना अंतर्द्वंद्व या व्यक्ति से लड़ाई प्रमुख है या कहीं मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और जिसके अंदर ही सारी समस्याएं समाहित हैं वह भी जरूरी है. आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ते हुए लोग हाशिए पर हैं. उनकी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं.

अवधेश प्रीत-  आज मुख्य रूप से दो तरह की कहानियां लिखी जा रही हैं- एक, अच्छी कहानियां और दूसरी, जरुरी कहानियां. मेरे विमर्श का विषय जरूरी कहानियां हैं. महत्त्वपूर्ण सवाल है कि आज क्या हमारी कहानियां वर्तमान परिदृश्य को पकड़ पा रही हैं?....
हार जीतकहानी यथास्थितिवादी सोच को मूल्यांकित करने वाली कहानी है. यह पोंगापंथियों को हमारे समय और समाज में अनावश्यक रूप से शह देने की कहानी है. ठीक इसी के बरक्स कहानी दाराशिकोह की उपनिषद्है. इतिहास को किस तरह से आज के समय में प्रासंगिक बनाया जा सकता है और इतिहास को किस तरह आज के समय के साथ खड़ा किया जा सकता है यह इस कहानी को देख कर पता चलता है.

जितेन्द्र कुमार-  बिहार का यथार्थ नरसंहार का यथार्थ है. बाथे के नरसंहार के आरोपी कोर्ट द्वारा बरी हो जाते हैं. वस्तुत: हमारी व्यवस्था अंतरविरोधों से ग्रस्त है. यह व्यवस्था जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर देती है...कहानी एगही सजनवा बिनु ए रामका शिल्प औपन्यासिक शिल्प है...इस कहानी ने मुझे काफी बेचैन किया. कहानी कि पात्र स्नेह लता शुक्ला की आत्महत्या बेचैनी पैदा करती है.

नूर जहीर- लोक कथा की मौखिक परंपरा में अभिव्यक्त यथार्थ के रंग और उनकी मारकता काफी तेज होती है. किंतु आधुनिक तकनीक के प्रभाव स्वरूप वे नष्ट हो रही हैं. उनकी तरफ हमको ध्यान देना होगा.

शिवमूर्ति- आज हमको आलोचना के औजारों को समयानुकूल बनाना होगा...बिना सरोकार के साहित्य की मूल धारा में बने रहना असंभव है. जहां सरोकार है वहीँ संघर्ष है. साहित्य में विचारधारा अनुस्यूत होनी चाहिए. जैसे चाय में चीनी. शिल्प और कथ्य का सामंजस्य ही रचना को महत्त्वपूर्ण बनाता है.

द्वितीय सत्र:
संचालन-महेश कटारे
श्रीप्रकाश मिश्र- पिछले 25 वर्ष में उपन्यास लेखन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. यह वृद्धि पश्चिमी दुनिया के वर्चस्व के प्रति प्रतिरोध के कारण हुई है. यह पश्चिम की हेजेमनी बाजारवाद की वजह से है. आज कहानियों की तुलना में उपन्यासों में यथार्थ की अभिव्यक्ति अधिक है...आदिवासी जीवन पर केन्द्रित उपन्यास मुख्यत: नगर और ग्राम समाज के द्वंद्व से लैस हैं.

शम्शुर्रहमान फारुखी-वर्तमान समय आज कई जगह अलग-अलग ढंग से है. वह हर जगह एक जैसा नहीं दिखाई देता है. आज लिखा जा रहा उपन्यास जीवन को समग्रता में समझ कर नहीं लिखा जा रहा है.

रमेशचंद मीणा- अभी तक वृद्ध जनों पर दर्जनों उपन्यास सामने आए हैं. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श पर भी पर्याप्त रचनाएँ सामने आई हैं किंतु आदिवासी उपन्यास अभी कम आए हैं. आदिवासी समाज में शिक्षा का सवाल महत्त्वपूर्ण सवाल है और पठार पर कुहरा इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण उपन्यास है...आदिवासी समाज के लिए शिक्षा बहुत जरुरी है और देश का विकास तभी संभव है जब शिक्षा गांव तक पहुचे.

अली अहमद फातमी- बड़े नावेल की तारीफ बयान करना अलग बात है किंतु बड़ा नावेल लिखना अलग बात है. इनफार्मेशन की बुनियाद पर उपन्यास नहीं लिखे जा सकते. नावेल को अपना कथ्य आलमारी रखी किताबों से नहीं से नहीं बल्कि उन आदमियों से लेना चाहिए जो आस-पास फैले होते हैं...उर्दू में 60 से 80 तक महत्त्वपूर्ण नावेल नहीं लिखे गए शायद इसका कारण यह है कि वह कलावादियों का दौर था. जिसमें सिम्बल का काफी इस्तेमाल है और सब जानते हैं कि सिम्बल का जितना अच्छा इस्तेमाल पोयट्री में सकता है उतना अच्छा इस्तेमाल नावेल में नहीं हो सकता. नैरेशन की बुनियाद पर नावेल चलता है और बिना नैरेशन, बिना यथार्थ के नावेल नहीं लिखा जा सकता.

राजेन्द्र कुमार- उपन्यास न तो हड़बड़ी में लिखा जा सकता है और न हड़बड़ी में पढ़ा जा सकता है...साहित्य में यथार्थ जरुरी है पर यथार्थ इकहरा नहीं होता.  यथार्थ का नाम कमेंट्री नहीं होता. यथार्थ कोई ठहरी हुई चीज नहीं है.
प्रेमचंद के यहां होरी की कथा मिलती है और गोबर की कथा शिवमूर्ति और मदन मोहन के यहां मिलती है...वर्तमान उपन्यास गतिशील यथार्थ को दर्ज करने में सक्षम है...समय का वर्ग चरित्र भी होता है और लेखक जब लिखता है तो वह इस वर्ग समय कि नहीं छुपा सकता. उपन्यासकार की पक्षधरता छुप नहीं सकती. उपन्यास अपने लेखक के बारे में भी होता है.

एन.आर. श्याम- तेलंगाना का सारा का सारा साहित्य आंदोलन का साहित्य है. लेखकों ने इन आंदोलनों को अपने साहित्य में दर्ज किया. तेलंगाना के कहानीकारों ने अपनी रचनाओं से संघर्ष का संकेत दिया. यहां के उपन्यास भी जल-जंगल-जमीन के सवालों को संदर्भित करते हुए लिखे गए.

22/12/2013
तृतीय सत्र:
संचालन-सुधीर सुमन
सत्यकेत्यु- आज का राजनितिक परिदृश्य ये है कि भ्रष्टाचार लोगों का खून चूस रहा है...और जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार (मोदी) है वह आज देश भर में घूम-घूम कर प्रचारित कर है जो दंगे, जो हत्याएं हुई सो हुई अब हम शांति स्थापित करेंगे और भ्रष्टाचार को ख़त्म करेंगे. अमरकांत ने इसे दशकों पहले पहचान लिया था और बहुत साफ-सुथरे तरीके से इसको अंकित कर दिया था. इतनी साफ-सुथरी दृष्टि और सजगता के कारण जब तक ऐसी परिस्थियाँ रहेंगी यह कहानी (हत्यारे) मौजूं रहेगी. यह कहानी यह भी संदेश देती है कि सिर्फ डिटेल से, विवरण से ही कहानी अपनी बात कह दे यह जरुरी नहीं है. छोटी कहानी भी अपनी बात पुख्ता तरीके से रख सकती है, बशर्ते हमारी (कहानीकार की) दृष्टि स्पष्ट हो.

योगेन्द्र आहूजा- अमरकांत अपनी कहानी हत्यारे के मनचाहे पाठ की छूट नहीं देना चाहते हैं. वे बार-बार अपने गुस्से और नफ़रत को इस कहानी में जहिर करना चाहते हैं. इसीलिए अमरकांत इस कहानी में भदेस भाषा का इस्तेमाल करते हैं. चालू अभद्र संवाद तर्कहीन, विद्रूप या बीमार दिमाग की उपज लगते हैं. ऐसा लगता है कि इस कहानी के पात्र मसखरे हैं जो दोगली भाषा में बात करते हैं जिससे उनके खतरनाक मनसूबे स्पष्ट होते हैं.

चरण सिंह पथिक- बुड़ान कहानी में एक दर्द है. विकास के नाम पर विरासत, परंपरा, संस्कृति के ख़त्म होने की बात है. जिसे पूरन हार्डी ने 2002 के पहल्रे ही पहचान लिया था. हमारे यहां सत्ता कभी विस्थापित नहीं हुई. पूरन हार्डी की कहानी में व्यक्त विस्थापन की समस्या हमारे समय कि बहुत बड़ी समस्या है...विस्थापन के कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन विस्थापित लोगों की समस्यायें अलग नहीं होतीं.

प्रियदर्शन मालवीय- बुड़ान कहानी हत्यारे कहानी की सीक्वल है. हत्यारे पूर्वपक्ष है, बुड़ान उत्तर पक्ष है. पूंजीवादी विकास हमारे यहां धर्म का रूप ले चुका है और इस विकास के खिलाफ बोलना कुफ्र है. यह विकास समाज के अपराधियों के लिए है. अब हत्यारे नहीं हत्यारे के समूह का समय है. इन विकट परिस्थितियों में बुड़ान जिजीविषा की कहानी है.

सुरेश कांटक- आज हम यहां इकट्ठा हुए हैं और बातचीत कर रहें हैं बुड़ान जैसी कहानियों पर. मित्रों! मुझे लगता है कि हम भी इसी बुड़ान में गायब होने वाले हैं. और यह कथामंच इस बुड़ान के बीच एक द्वीप के रूप में है जहां हम बैठ कर इस बुड़ान से बचने का उपाय सोच रहे हैं. हमें आशंका है की यह बुड़ान पूरे हिदुस्तान को न लील जाए. जो व्यवस्था हमारे देश में चल रही है इस व्यवस्था में सारा कुछ डूबने वाला है...अब हत्या की संस्कृति यहां सत्तानशीं है और हर जगह बुड़ान कायम करना चाहती है...
हम तन्हा रह कर जड़ता को तोड़ नहीं सकते. जड़ता को तोड़ने के लिए एक दृष्टि की जरूरत होती है.

कैलाश बनवासी- हत्यारे कहानी में किस वर्ग से हत्यारे की पहचान की जा रही है और यह जो वर्ग है पूंजीपति. उन्नत, विकसित वर्ग नहीं है. हमारे ही बीच से निकला एक लुम्पेन वर्ग है...रचनाकार वही दर्ज करेगा जो वह देखेगा...पुरन हार्डी ने छत्तीसगढ़ कि संस्कृति को बहुत बारीकी से दर्ज किया है.

महेश कटारे- हत्यारे कहानी मेरे सामने एक चुनौती की तरह आकर खड़ी हो जाती है. पहली चुनौती तो भाषा की है. हत्यारे और बुड़ान दोनों कहानियों की जो भाषा है वो समझ में आती है. कितनी बड़ी भी रचना हो यदि समझ में न आए तो बहुत मुश्किल हो जाता है और ये दोनों कहानियां समझ में आती हैं. इसलिए आज इन दोनों कहानियों का जिक्र हो रहा है और बार-बार ये समय की सीढ़ियां चढ़ती हुई स्मरण में आती रहेंगी एक लम्बे काल-खंड में...
हम मार्क्सवादियों को भी अपना भी मूल्याङ्कन करना होगा कि हमने क्यों विस्थापन के ऊपर कहानियां नहीं लिखीं और मेरा यह सवाल मुझसे भी है.

चतुर्थ सत्र:
संचालन-कैलाश बनवासी
नीलम शंकर- कहानी का शीर्षक सिगरेट वाली मजारही बहुत कुछ कह जाता है. इस कहानी में पितृसत्ता अपने कई रूपों और रंगों में स्पष्ट होती है. इसमें पितृसत्ता के कई शेड्स हैं.

हिमांशु रंजन- सिगरेट वाली मजारकहानी पितृसत्ता के पहलू को बहुत खूबसूरती से उभारती है. रचनाकार के मन में ज्यादा से ज्यादा सूचानाओं का मोह ठीक नहीं होता. जब कम सूचनाओं से , प्रतीकों से कहानी की रचना की जा सकती है तो क्या जरूरत है कि सूचनाओं का अम्बार खड़ा किया जाए. सिगरेट वाली मजारजितनी जरूरत है उतनी सूचनाओं का यह कहानी इस्तेमाल करती है और कहानी कहने का यही तरीका है. नूर की कहानी बहुत खूबसूरती से मजदूर तबके की जिंदगी को अपनी विषय-वस्तु बनाती है.

डा. सालेहा जबीं- सिगरेट वाली मजार एक ऐसे तबके की ओर इशारा करती है जो मजारों से अपना गुजरा करता है. इसमें कुछ जुमले बहुत शानदार हैं...कहानी में यह बात बहुत खूबसूरती से दर्ज की गई है कि कैसे एक मर्द जाता है और दूसरा जन्म ले रहा होता है.

अशरफ अली बेग- धर्म और समाज का जो संबंध चला आ रहा है उस पर भी यह कहानी (सिगरेट वाली मजार) टिप्पड़ी करती है...आज के दौर में जो कहानियां लिखी जा रही हैं उनमें एक विडम्बना दिखाई देती है कि कुछ कहानीकार कला को लेकर बहुत सतर्क दिखाई देते हैं...कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि वह याद रह जाए. इस लिहाज से भी नूर जहीर साहिबा की कहानी दिमाग पर नक्श रह जाती है.

नगीना जबीं- इस कहानी (सिगरेट वाली मजार) की शुरुआत एक बहुत बड़ी पालिटिक्स की तरफ इशारा करती है कि हिंदुस्तान में यदि किसी को जमीन पर कब्ज़ा करना हो तो एक छोटा सा मंदिर बना ले या मजार ले, ये बुनियादी बात है जो मुझे अपने तौर पर इस कहानी में लगी है.

अली अहमद फातमी- यहां बार-बार कहा गया कि नूर की कहानी पितृसत्ता की कहानी है. पर मैं नहीं मानता कि यह पितृसत्ता की कहानी है. यह दरअसल उस कल्चर की कहानी है जो मजार के इर्द-गिर्द परवरिश पाता है और किस तरह अपनी जीविका के लिए मजार को एक माध्यम बनाता है...इसमें कहानी को (जबरिया) स्त्री विमर्श की ओर मोड़ने की कोशिश की गई है. स्त्री विमर्श वहीँ होना चाहिए जहां उसकी जरूरत हो. दरअसल ये कहानी उस वर्ग संघर्ष की कहानी है जिन्दा रहने की कहानी है जहां मजार में लोग जिन्दा रहने का आसरा ढूंढते हैं.

शिवमूर्ति- मेरा मानना है कि लेखक को विद्वान् नहीं होना चाहिए एक आम आदमी होना चाहिए. और अपनी आम सूझ से लिखना चाहिए. लेखक को विशेषज्ञ तो कतई नहीं होना चाहिए, अगर वह विशेषज्ञ होने की तरफ लपका तो समझिए गया. नूर जी कहानी में कई आयाम दिखाई देते हैं...
जितना हम देखते हैं उतनी ही दुनिया नहीं हैं उसके भी बहुत आयाम होते हैं. साम्प्रदायिकता के जैसे अनेक रूप हैं उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के भी हजार रूप हैं.

मुरलीधर- यौनिकता कोई टैबू नहीं है. कतई जरूरी नहीं की उसे हमेशा कारपेट के नीचे रखा जाए. खास करके जब स्त्री यौनिकता का सवाल हो तब तो यह जरूरी हो जाता है क्योंकि यह स्त्री अस्मिता के सवाल से जुड़ता है. हालांकि यह पहली बार नहीं है कि कथा के गैरजरूरी प्रदेश में अल्पना जी ने कोई पहल-कदमी की हो. इस प्रश्न पर कई लोगों ने लिखा है. इसकी लम्बी परंपरा है. इस कहानी कथा के गैरजरूरी प्रदेश मेंकी संरचना थोड़ी जटिल है असम्बद्ध दिखती है...सिर्फ शिल्प की जटिलता से कहानी नहीं बनती है. इसी के चलते जो यथार्थ है उसकी जटिलता की परतों को भेदने में यह कहानी सक्षम नहीं हो पाती है.


अनीता गोपेश- लेखिकाओं आज अश्लीलता कि होड़ लगी हुई है’- इस तरह के खतरे को उठाते हुए भी अल्पना जी ने यह कहानी लिखी है. यह कहानी कथा के गैरजरूरी प्रदेश में यौनिकता कि बात को बहुत सधे हुए रूप में सामने रखती है...(अल्पना जी) विवाहोत्तर यौन-उत्पीड़न की समस्या को रेखांकित करती हैं...आज स्त्री विमर्श बहुत विकट समय में खड़ा है. आक्रामक स्त्री विमर्श एक तरफ है जो पुरुषों को दुश्मनों की तरह लेता है. लेकिन इसके बरक्स स्वाथ्य स्त्री विमर्श भी है जिसमें पुरुष की भी स्वीकार्यता है...अल्पना जी की कहानी थोड़े से बिखराव के बावजूद एक स्वागत योग्य रचना है.

अनिल यादव- नूर की कहानी निश्चित तौर पर फेमनिस्ट कहानी है. लेकिन पितृसत्ता के सामने लाचार कहानी है. कराहती, लंगड़ाती कहानी है. बहुत संक्षेप में कहा जाए तो यह कहानी बताती है कि मर्द का बच्चा मर्द ही होगा.
...चालू फैशन का जो फेमिनिज्म है कि हम किसी से कम नहीं, उससे सवाल पैदा होता कि क्या स्त्रियों की दुनिया अलग होगी...
...अगर फेमिनिज्म को किसी मंजिल तक पहुंचना तो निश्चित तौर पर उसमें ऐसे मर्द भी शामिल होंगे जो फेमिनिज्म के तर्कों को, पीड़ाओं को सिर्फ समझने ही नहीं उसको भोगने में भी साझीदार हों.