Tuesday, 26 August 2014

दलित स्त्रीवाद का नया इलाक़ा : कर्मेन्दु शिशिर


पुस्तक-समीक्षा-

पुस्तक : दलित स्त्रीवाद की आत्मकथात्मक अभिव्यक्ति.
लेखक : राम नरेश राम
नयी किताब, दिल्ली-110032. मूल्य : 195/- रूपये.


(कर्मेन्दु शिशिर उन आलोचकों मे से हैं जो नई पीढ़ी से पर्याप्त आशा रखते हैं और अपनी इसी के चलते वे उन्हें समुचित रूप से अभिप्रेरित करने का धैर्य व साहस रखते हैं। कर्मेन्दु शिशिर ने अपने आलोचकीय कर्म में नवजागरण जैसे विषय पर बेहतरीन काम किया है। इतिहास के द्वन्द्वात्मक पुनर्मूल्यांकन की चेतना और भविष्य निर्मात्री युवा पीढ़ी में विश्वास का यह संयोग उनकी चेतना की समृद्धि की ओर ही इशारा करता है।)


रामनरेश राम उन थोड़े से अधुनातन युवा लेखकों में से हैं, जिनके लेखन की विचारोत्तेजकता उन्हें दूसरों से हिगराती है। अपने समय-समाज के सरोकारों से जुड़े जीवन्त मुद्दों को वे जिस शिद्दत के साथ उकेरते रहे हैं, वह ख़ासतौर से ध्यान आकृष्ट करता है। अभी उनकी छपी पुस्तक दलित स्त्रीवाद की आत्मकथात्मक अभिव्यक्ति दरअसल उनके शोध विनिबन्धक का ही परिष्कृत रूप है। जाहिर है अकादमिक प्रविधि के अनुशासनों की अपनी सीमाएँ भी हैं लेकिन जगह-जगह विश्लेषण और यथार्थ की अंतर्दृष्टि भरी सूझ से वे उसका अतिक्रमण भी करते हैं। उनकी प्रखर वैचारिक, सामाजिक जागरूकता और समकालीन अध्ययन विस्तार पाठक को बाँधे रहती है। कहीं भी आप को अकादमिक ऊब नहीं होती। पढ़ते हुए आप यह सहज महसूस करते हैं कि लेखक उन संकीर्णताओं से मुक्त है, जो अमूमन दलित लेखन की विडम्बनाएँ रही हैं। वैसे दलित या ऐसे तमाम विमर्शों की मूल दिक्कत यह रही है कि ऐसे तमाम अध्ययन स्वायत्त शकल में किए जाते हैं। इस कारण इन विमर्शों पर तेज रोशनी तो जरूर पड़ती है, जिससे कई तरह के तात्कालिक अवसर सध जाते हैं। लेकिन जरूरत समग्रता में रखकर इन विषयों के अध्ययन की है, जिससे ऐतिहासिक विकास क्रम में इसे तमाम सरोकारों के विस्तार में परखा जा सके।
      
     `हिन्दी में अब तक हुए स्त्री-विमर्शों का विश्लेषण करते हुए रामनरेश जी ने उसके अंतर्विरोधों और दिशा वैविध्य की भी चर्चा की है। बल्कि इसके पीछे की मानसिक प्रवृत्ति को परखा है और ऐसा करते हुए दलित स्त्रीवाद को रेखांकित करते  हुए उसके भिन्न सामाजिक यथार्थ को इंगित किया है।  यहाँ यह बात गौर करने वाली है कि ऐसा करते हुए दुराग्रहों के शिकार नहीं होते। जैसे स्त्री के पीछे जाने का यथार्थ दलित गैरदलित दोनों में समान है। मसलन स्त्री-विमर्श के प्रचलित स्वरूप में वे दलित स्त्री जीवन को अलग हिगराते हुए किसी सरलीकरण का सहारा नहीं लेते। बेशक दलित यथार्थ को कुछ बुनियादी सैद्धांतिक समझ और ऐतिहासिक अध्ययन तथा शोध की अपेक्षाएँ बनी रहती हैं, जो शूद्रों और दलित भेद अथवा हिन्दी में दलित अध्ययन की ऐतिहासिकता से जुड़े हैं। प्रेमचन्द, निराला या नागार्जुन की रचनात्मकता से अलग क्षीण ही सही लेकिन नवजागरण काल से ही दलित सवालों का वैचारिक भूगोल शुरू होता है। उसके विस्तार में जाने के लिए शोध, अध्ययन और विचार-विश्लेषण कार्य अभी होना शेष है।
      
     रामनरेश जी की खूबी यह है कि वे हिन्दी या मराठी दलित आत्मकथाओं में दलित स्त्री जीवन की पहचान के लिए इतिवृत्तात्मकता का आसान रास्ता नहीं चुनते। वे दलित स्त्री जीवन के उन बिन्दुओं के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सरोकारों की पहचान कर उसे विश्लेषित करते हैं। ऐसा करते हुए कई अजानी वीथियाँ भी उद्घाटित होती हैं, जो अक्सर हमसे ओझल रह जाती हैं। ब्राहमणवादी सामाजिक संरचना, धार्मिक रूढ़ियों और परम्पराओं की निरंतरता, लिखित-अलिखित बन्दिशें और परिवार की पारम्परिक अवधारणा और बनावट के बीच स्त्री का शोषण और उपेक्षा इतना सहज होता है कि उसे भी अपनी गुलामी का अहसास तक नहीं होता। इसमें दलित स्त्री का शोषण और गुलामी इतना बहुआयामी होता है कि उसकी कल्पना ही दिल को दहला देती है।
      
     बेशक यह पुस्तक कलेवर में संक्षिप्त होते हुए भी समीक्षात्मक विस्तार की मांग करती है क्योंकि लेखक ने डॉ. अम्बेडकर के पूर्व और बाद में आए परिवर्तनों और प्रभावों की पड़ताल करते हुए जीवन-दर्शन पर भी विचार किया है। इसमें सबसे अधिक उत्सुकता जीवन दर्शन के समाजशास्त्र वाले अध्याय को लेकर होती है। आखिर क्या कारण है कि मराठी की तुलना में हिन्दी क्षेत्र में दलित स्त्री की आत्मकथाओं का अभाव रहा। इस पर विचार करते हुए लेखक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं, संकेत दिए हैं, जिनके विस्तार की जरूरत है। दलित स्त्री जीवन में मुक्ति की अकुलाहट और विद्रोह का ताप भी है। जकड़न की, बन्दिशों की गहरी पीड़ा है। अन्त में कविता और सिनेमा में आए इस विमर्श से संबंधित लेखकीय टिप्पणियाँ पुस्तक को और उपयोगी और विचारोत्तेजक बनाती हैं। सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा की समीक्षा और उनसे साक्षात्कार को शामिल कर लेखन ने व्यावहारिक अनुशीलन का जो साक्ष्य रखा है, वह उसके कार्य को एक तरह से पाठकीय बोध को पूर्णता देता है। रामनरेश जी की यह पुस्तक हिन्दी में दलित लेखन के एक पक्ष विशेष के नए इलाक़े से हमें परिचित ही नहीं करती, बल्कि एक नया विस्तार करती है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।