Monday, 21 December 2015

प्रो. लालबहादुर वर्मा को ‘शारदा देवी शिक्षक सम्मान’ के अवसर पर प्रणय कृष्ण की ओर से पठित मान-पत्र


(प्रो. लालबहादुर वर्मा को ‘शारदा देवी शिक्षक सम्मान’ के अवसर पर प्रदान किए गए मान-पत्र की मूल प्रति. इसी मान-पत्र का संक्षिप्त रूप निर्णायक मंडल की ओर से श्री प्रणय कृष्ण द्वारा सम्मान कार्यक्रम में पढ़ा गया.)




चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क, इलाहाबाद में स्थित म्यूजियम के सभागार में 
प्रो. लालबहादुर वर्मा को प्रथम 'शारदा देवी स्मृति सम्मान' प्रदान करते हुए हम सब गर्व का अनुभव करते हैं. हिन्दी-उर्दू समाज के अप्रतिम आवयविक बुद्धिजीवी के रूप में प्रो. लालबहादुर वर्मा का हमारे बीच होना एक प्रकाश-स्तम्भ का होना है. आज के भारत में हमारे बीच शायद ही कोई ऐसा बुद्धिजीवी हो जिसने प्रो. वर्मा की तरह इतिहासकार, विचारक, आन्दोलनकारी, संगठनकर्ता, सांस्कृतिक प्रबोधनकार, अध्यापक, सम्पादक, उपन्यासकार, अनुवादक, नाटककार और सबसे बढ़कर एक नायाब इंसान और बेहतरीन दोस्त की इतनी सारी भूमिकाएं एक साथ अदा की हों. कहना न होगा कि इन सब भूमिकाओं के दक्ष निर्वाह के पीछे एक और शख्सियत की भूमिका भी है जिसे अलक्षित नहीं रखा जा सकता और वह शख्सियत हैं प्रो. वर्मा की शरीक-ए-हयात डा. रजनीगन्धा वर्मा.

प्रो. वर्मा को दुनिया पेशे से एक इतिहासकार के रूप में जानती है, लेकिन वे एक ऐसे विलक्षण इतिहासकार हैं जिन्होंने पीढ़ियों को यह सिखाने का दायित्व भी वहन किया कि इतिहास जिया कैसे जाता है, कि इतिहास का निर्माण जनता ही करती है और जनता के जीवन में हिस्सा लेना इतिहास-निर्माण में भागीदारी का ही दूसरा नाम है. इसीलिए प्रो.वर्मा ने 'भारत का जन-इतिहास' तैयार किया और क्रिस हर्मन की पुस्तक 'विश्व का जन इतिहास' का तर्जुमा करके हिन्दीभाषियों को उपलब्ध कराया. आज जिस वक्त हमारे देश में इतिहास के नाम पर देवताओं का ऐतिहासीकरण और इतिहास-पुरुषों का दैवीकरण हो रहा है, ऐसे समय साधारण जनता को इतिहास की ताकत माननेवाले इतिहासकार लालबहादुर वर्मा का हमारे बीच होना हम सब की खुशनसीबी है. प्रो. वर्मा के विपुल इतिहास-लेखन में बारम्बार यह अमिट प्रतिज्ञा उभरती है कि इतिहास मनुष्यों का ही हुआ करता है, अतः इतिहास के बगैर न तो मनुष्यता की बात हो सकती है और न ही मनुष्यता के बगैर इतिहास की कोई बात हो सकती है. प्रो. वर्मा की लिखी 'इतिहास के बारे में' और 'Understanding History'  जैसी पुस्तकों से कोई भी आम पाठक महज यही नहीं जानता कि इतिहास क्या है, उसकी पद्धतियाँ और प्रणालियाँ क्या हैं, बल्कि सबसे ज़्यादा वह यह जान सकता है कि इंसानी ज़िंदगी के लिए उसका मूल्य क्या है. प्रो. वर्मा एक अग्रणी लोक-शिक्षक हैं और इतिहास की विधा को उन्होंने कभी सिर्फ अकादमिक काम नहीं माना, उसे लोक-शिक्षण और जन-चेतना की उन्नति के  माध्यम की तरह बरता. 'मानव-मुक्ति कथा', दो खण्डों में योरप का इतिहास, दो खण्डों में विश्व का इतिहास, 'कांग्रेस के सौ साल', 'अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध' आदि मौलिक कृतियों के साथ साथ रोज़े बूर्दरो की मूल फ्रेंच पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'फासीवाद: सिद्धांत और व्यवहार', आर्थर मारविक की मूल अंग्रेज़ी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'इतिहास का स्वरूप' तथा एरिक होब्सबोम की कालजयी इतिहास-पुस्तक शृंखला की एक कड़ी का हिन्दी अनुवाद 'क्रांतियों का युग' शीर्षक से प्रकाशित करा के उन्होंने व्यापक फलक पर इतिहास के लोक शिक्षण के काम को अंजाम दिया. वर्मा जी ने न केवल १९८५ से लेकर १९८८ तक 'इतिहास' पत्रिका का संपादन किया, बल्कि १९८९ से अबतक लगातार जिस राजनैतिक-सांस्कृतिक पत्रिका का वे प्रकाशन करते आ रहे हैं उसका नाम भी उन्होंने 'इतिहासबोध' ही रखा. अकादमिक हलके में बतौर इतिहासकार उनकी कद्दावर शख्सियत का निर्माण तब शुरू हुआ जब उन्होंने १९६५ से १९६७ के बीच गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में पी. एच. दी. उपाधि के लिए 'भारत का सबसे छोटा अल्पमत : एंग्लो इंडियन' विषय पर शोध-कार्य संपन्न किया. उसके बाद आपने पेरिस के सोरबोन्न विश्विद्यालय में विश्वविख्यात समाजशास्त्री रेमों आरों के निर्देशन में शोध-कार्य आरंभ किया. १९६७ से लेकर १९७१ तक चला यह महत्वपूर्ण शोध कार्य एक ऐसे विषय पर है जिसकी प्रासंगिकता आज सबसे ज़्यादा है. यह विषय था, "इतिहास में पूर्वाग्रह की समस्या'. प्रो. वर्मा ने इतिहास की विभिन्न शोध-पत्रिकाओं में २० से अधिक शोध पत्र प्रकाशित कराए और उत्तर प्रदेश इतिहास कांग्रेस, उत्तराखंड इतिहास कांग्रेस, अखिल भारतीय इतिहास कांग्रेस के भारतेतर इतिहास विभाग तथा अकादमी ऑफ़ सोशल साइंस के इतिहास विभाग की अध्यक्षता की.

प्रो. लालबहादुर वर्मा का जन्म १० जनवरी, १९३८ को बिहार के छपरा जिले में हुआ. आपने प्राम्भिक शिक्षा आनंदनगर, गोरखपुर से ग्रहण करने के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक, लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और फिर गोरखपुर तथा सोरबोन्न विश्वविद्यालयों से पी.एच.डी. उपाधियों के लिए अध्ययन किया. १९५९ से  आपने सतीशचन्द्र महाविद्यालय , बलिया से अपने अध्यापकीय सफ़र की शुरुआत की. १९६४ में आप गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अध्यापन करने आ गए. यहाँ लगभग बीस साल के अध्यापन के दौर में आपने कई पीढ़ियों को प्रगतिशील जीवन-मूल्यों और मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि में शिक्षित-प्रशिक्षित किया. यहाँ रहते हुए आपने १९७२ से लेकर १९८४ के बीच साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका 'भंगिमा' का संपादन किया जो अपने समय में  प्रगतिशील सांस्कृतिक मूल्यों की अनिवार्य राष्ट्रीय पत्रिका बन कर उभरी. संस्कृति और विचार की दुनिया में पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह उर्वर दौर था जिसके केंद्र में थे युवा अध्यापक लालबहादुर वर्मा. स्टडी-सर्किल, नाटक, कार्यशालाएं, रचना-गोष्ठियों में वर्मा जी के इर्द-गिर्द युवाओं की अच्छी-खासी टोली हुआ करती जिनमें से अनेक आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मूल वृक्ष की शाखाओं की तरह फ़ैल गए हैं. प्रो. लालबहादुर वर्मा के विद्यार्थी, चाहे उनकी उम्र जो हो, उनका पेशा जो हो, आज भी अपने इस अद्भुत अध्यापक से जितना प्यार करते हैं, वह अभूतपूर्व है. एक अच्छा अध्यापक जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल सकता है, इसके सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक हैं प्रो.वर्मा. १९८५ से १९९१ के बीच आपने मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन किया. यहाँ रहते हुए आपने भारत के उत्तर-पूर्व को जिस अभिनव दृष्टि से देखा, जो अनुभव सहेजे, वे काफी समय बाद एक महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति का आधार बने. १९९१ से आप इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाने आए और यहीं से आपने १९९८ में अध्यापन से अवकाश ग्रहण किया. सतत यात्री ने आखिरकार अपना डेरा एक जगह स्थापित कर लिया - उसी इलाहाबाद में जिसे निराला, पन्त, महादेवी, फिराक ने मुख्तलिफ जगहों से आकर अपना स्थायी ठिकाना बना लिया. वर्मा जी के यहाँ बस जाने से इस कतार में एक और कड़ी जुड़ी, हमारा शहर कुछ और रौशन हुआ.

प्रो. वर्मा की कार्रवाइयों का शायद सबसे बड़ा इलाका संस्कृति का इलाका है. पिछली आधी सदी से भी ज़्यादा समय से उन्होंने प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और जनवादी संस्कृति-कर्म में लगे हुए तमाम लोगों को एकताबद्ध करने की मुहिम छेड़ी हुई है. संस्कृति-कर्मियों की अनेक पीढ़ियों को उनके मार्गनिर्देशन का लाभ मिला है, उनसे प्रेरणा मिली है. १९८२ में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चे की स्थापना, १९९९ में साझा सांस्कृतिक अभियान की शुरुआत, २००३ में 'मुहिम' के नाम से सांस्कृतिक पहल की शुरुआत और २०१२ से अब तक लगातार सांस्कृतिक मुहिम के तहत सांस्कृतिक कार्यशालाओं, अध्ययन-चक्रों की शृंखला, आसान भाषा में समाज, संस्कृति और राजनीति के जीवंत विषयों पर पुस्तिकाओं का प्रकाशन तथा भगत सिंह और डी. डी. कोसंबी व्याख्यानमालाओं के ज़रिए उन्होंने जो अथक और अपराजेय सांस्कृतिक अभियान संचालित किया है, वह बड़ी बड़ी संस्थाओं के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है. वे खुद में एक चलती फिरती मुहिम हैं जिसके चुम्बकीय आकर्षण से हर कहीं जवां उमंगों से भरे तमाम लोग खिंचे चले आते हैं, जगह चाहे उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल हो या भारत का सुदूर उत्तर-पूर्व. इस पूरे  जीवन-समर के पीछे कितना संघर्ष, कितनी साधना, व्यक्तिगत और पारिवारिक ज़िंदगी की कितनी कुबानियाँ हैं, यह मानों लोगों की निगाह में ही नहीं है. प्रो. वर्मा की आत्मकथा का पहला हिस्सा 'जीवन प्रवाह में बहते हुए' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है और दूसरा हिस्सा जल्दी ही प्रकाशित होगा. हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस अत्यंत कर्मठ और कीमती जीवन की अलक्षित अंतर्धाराएं भी हम सब को दृश्यमान हो सकेंगीं. पिछले साल आपको दिल का दौरा पडा, बड़ा ऑपरेशन हुआ, लेकिन बीमारी को ठेंगा दिखाते हुए आपने इसी साल २०१५ में विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से प्रबोधन- शृंखला शुरू कर दी. नागरिक समाज के हर आन्दोलन में उसी तरह आपकी शिरकत है, जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं हो, मानों दिल का ऑपरेशन किसी और का हुआ हो.

       वर्मा जी के सांस्कृतिक अभियान का एक अहम पहलू साहित्य-सृजन भी रहा. एक संवेदनशील रचनाकार की हैसियत से उन्होंने अनेक कहानियां ही नहीं लिखीं, बल्कि दो महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे. 'उत्तर-पूर्व' शीर्षक उपन्यास उत्तर-भारतीय, पितृसत्तात्मक, सवर्ण-बोध वाली राष्ट्रीय-चेतना से बेदखल अपनी अस्मिता के लिए जूझते उत्तर-पूर्व की महागाथा है. मणिपुर का इतिहास, sanskrusanskrutsanskrutiसंस्कृति, सामाजिक जीवन और उसके संघर्ष यहाँ मार्मिक अभिव्यक्ति पाते हैं. अकारण नहीं कि 'थांगजम मनोरमा' को समर्पित एक कविता से इस उपन्यास का आरम्भ होता है. आपका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है 'मई अड़सठ' जो फ्रांस के अभूतपूर्व छात्र आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है. प्रो. वर्मा बतौर शोधकर्ता इस आन्दोलन के प्रत्यक्षदर्शी थे. जिस सोरबोन्न विश्विद्यालय में १९६७ से १९७१ के बीच आप शोधरत थे, वह आन्दोलन का प्रमुख केंद्र था. वर्मा जी के दोनों उपन्यासों में विश्वविद्यालय का जीवन वह कथा-सूत्र है जो व्यापक फलक पर घट रही घटनाओं को बांधता है. भोपाल गैस त्रासदी पर लिखा आपका नाटक 'ज़िंदगी ने एक दिन कहा' बहुचर्चित रहा और खेला भी खूब गया. आपने दुनिया की कुछ युगांतरकारी साहित्यिक पुस्तकों का अनुवाद कर हिन्दी पाठक की चेतना को समृद्ध किया है. हारवर्ड फॉस्ट के चार उपन्यासों, अमेरिकी लेखक जैक लंडन के उपन्यास 'आयरनव्हील', अलेक्जान्द्रा कोलेंताई की आत्मकथा, गैलीलियो के जीवन पर आधारित ब्रेष्ट के कालजयी नाटक के साथ साथ विख्यात मार्क्सवादी चिन्तक जॉन होलोवे की पुस्तक 'चेंज दि वर्ल्ड विदाउट टेकिंग पॉवर' का 'चीख' शीर्षक से अनुवाद करके आपने हक़, इन्साफ, ईमान और इंसानियत के हिमायती अंतर्राष्ट्रीय साहित्य की अनेक कृतियों को हिन्दी में जज़्ब कर लिया. प्रो. वर्मा के सांस्कृतिक अभियानों, उनके भाषणों, लेखों, उनके सम्पादन में निकली पत्रिकाओं में छेडी गयी तेजस्वी बहसों और विमर्शों ने साहित्यिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर जो प्रभाव छोड़े, उनके संपादन और व्यक्तिगत सान्निध्य में नए लेखक-लेखिकाओं, राजनीतिक- सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का जो प्रशिक्षण हुआ, उनके व्यक्तित्व जैसे निखरे, इन बातों का अहसास हज़ारहाँ रूपों में बिखरे हैं. आज उन्हें चुनने सहेजने का अवसर है. इलाहाबाद की धरती पर आज प्रो. लालबहादुर वर्मा का सम्मान इंसानी दोस्ती, मुल्क की बहुरंगी संस्कृति, इन्साफ के तसव्वुर, लोकतांत्रिक और प्रगातिशील मूल्यों और मनुष्य की अदम्य जिजीविषा का सम्मान है.

Tuesday, 8 December 2015

जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


'मैं जिंदा हूँ और गा रहा हूं.' - 'विद्रोही'
कल ८ दिसंबर, २०१५ को शाम ४.३० के करीब जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' ने दिल्ली में अंतिम साँसें लीं. विद्रोही ने अपनों के बीच, आन्दोलन के मोर्चे पर अंतिम साँसे लीं. जैसा वे जिए, वैसा ही मरे. जैसे कोई मध्यकालीन संत शताब्दियाँ पार करके आधुनिक सभ्यता के जंगलों में आ निकले, उसकी सारी विडंबनाएं और चोटें झेलते, वैसे ही फक्कड़, मलंग बना फिरे, अपनी मातृभाषा में हमारे आज के समय के सबद और अभंग जोड़ते हमारे बीच से गुज़र जाए. कविता उनकी जीविका नहीं, ज़िंदगी थी और जन-आन्दोलन और मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि उसकी सबसे पौष्टिक खुराक. कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं, खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं. कविता क्या है?” जैसे सनातन विषय पर विद्रोही के  विचार देखें-
कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है
बाप का सूद है,  मां की रोटी है।
ऐसी कविता और ऐसी ज़िंदगी अक्सर उस सीमान्त पर विचरण करती हैं जहां मौत हाथ मिलाने के फासले पर होती है. जो दुनिया उन्हें मिली, उसमें जीने की 'शर्म की सी शर्त' उन्होंने नामंजूर कर दी. अपनी कविताओं में अलग दुनिया बनाई. उन्होंने अपने भौतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी से कोई गुहार नहीं लगाई. अपने लोगों से उनकी अपेक्षा यही थी कि वे अपने कवि को बचाएं - 
”...तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ-
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं,
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है,
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर 
पड़ी है।
मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है,
जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं ।
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है,
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है,
तुम मुझे बचाओ!
मैं तुम्हारा कवि हूं। ” 
और यह कवि बचा रहेगा, उन लोगों के बीच जिन्हें उसने जान से ज़्यादा प्यार किया है और जिनसे उसने खुद को बचाए रखने की उम्मीद की है. विद्रोही में पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म, हर पाखण्ड के खिलाफ अपरम्पार गुस्सा, तीखी घृणा है. प्राचीन और समकालीन मिथकों का कविता में रचा उनका पाठ हर उस शोषक , हर उस आततायी को तिलमिला देगा जिसे अपनी बदमाशियों को छिपाने के लिए संस्कृति की पोशाक चाहिए. विद्रोही ने कलजुगहे मजूर की आत्मा में प्रवेश किया और उसकी चाहतों का ऐसा अपूर्व विप्लवी, अछोर संसार रचा  जो पूरी हिन्दी कविता में अनन्य है, जिसे यहाँ मैं पूरा ही उद्धृत कर रहा हूँ-  
जनि जनिहा मनइया जजीर मांगात ऽ ऽ 
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात ऽ ऽ
बीड़ी-पान मांगात ऽ ऽ 
सिगरेट मांगात ऽ ऽ 
कॉफ़ी-चाय मांगात ऽ ऽ 
कप-प्लेट मांगात ऽ ऽ 
नमकीन मांगात ऽ ऽ 
आमलेट मांगात ऽ ऽ 
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगात ऽ ऽ 
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगात ऽ ऽ 
औ पतरवा के बदले थार मांगात ऽ ऽ 
पूरा माल मांगात ऽ ऽ 
मलिकाना मांगात ऽ ऽ 
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगात ऽ ऽ 
दूधे -दहिए के बरे अहिराना मांगात ऽ ऽ 
दुलहिनी के बरे बरसाना मांगात ऽ ऽ 
आलू-भांटा बरे बोड़री के चक मांगात ऽ ऽ 
अंचारे बरे लखनी के बाग मांगात ऽ ऽ
बिहारै बरे पूरा वृन्दावन मांगात ऽ ऽ
गोड़ धोवै बरे राजा गंगासागर मांगात ऽ ऽ
अंचावै बरे पूरा जगन्नाथ मांगात ऽ ऽ
गंगा-जमुना मांगात ऽ ऽ सरस्वती मांगात ऽ ऽ
तौ सौवै बरे जनक के बगीचा मांगात ऽ ऽ
दरी मांगै, गद्दा मांगै औ गलीचा मांगात ऽ ऽ
अपने बिटुआ के अंजोरिया का बच्चा मांगात ऽ ऽ
और बियाहे बरे राजा अंगरक्खा मांगात ऽ ऽ
औ बराते बरे बाजा अलगोजा मांगात ऽ ऽ
न ता धोखी मांगात ऽ ऽ न ता धोखा मांगात ऽ ऽ
न ता ओझा मांगात ऽ ऽ न ता सोखा मांगात ऽ ऽ
सोझा-साझा ई मनइया शासन सोझा मांगात ऽ ऽ
न इनाम मांगात ऽ ऽ न इकराम मांगात ऽ ऽ
न कउनो भीख मांगात, न अनुदान मांगात ऽ ऽ
न गऊदान मांगात ऽ ऽ न रतिदान मांगात ऽ ऽ
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगात ऽ ऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगात ऽ ऽ
आधी रतियौ के मांगे, आपन दाम मांगात ऽ ऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगात ऽ ऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगात ऽ ऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगात ऽ ऽ
न ता साधू मांगात ऽ ऽ न फकीर मांगात ऽ ऽ
ना ई तोहरी तिरथिया के नीर मांगात ऽ ऽ
ई अपनी मइया बहिनिया से बीर मांगात ऽ ऽ
जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात ऽ ऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात ऽ ऽ जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात ऽ ऽ
विद्रोही की कविता के हलवाहे, चरवाहे, केवट, कहार, दलित, मजदूर, किसान, औरतें, बच्चे जितना अपनी यातनाओं, उतना ही अपने सपनों के साथ आते हैं. वे तमाम पंडे, पुरोहितों, मुल्ला, मौलवियों, महाजनों, ज़मीदारों, पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों से अपने भविष्य को लेकर ही नहीं लड़ते, बल्कि अपहृत अतीत का भी हिसाब माँगते हैं. विद्रोही की कविताएँ सबसे ज़्यादा यही लोग समझेंगे. विद्रोही हमारे अपवंचित राष्ट्र के  कवि हैं, उन लोगों के  कवि हैं जिन्हें अभी राष्ट्र बनना है. लेकिन विद्रोही के विकट व्यक्तित्व को दुनियाबी व्याकरण से समझना मुश्किल है. जिन्होंने उन्हें दुनिया से बेखबर बाउल गानेवालों की तरह अकेले में डूब कर गाते देखा है, खुद से बातें करते देखा है, भीतर के किसी श्मशान के प्रेतों से लड़ते-झगड़ते देखा है, वे विद्रोही की उस अलग, अगम और निराली दुनिया का सिर्फ बाहरी आभास पा सके हैं जिसमें प्रवेश करना शायद किसी के लिए भी आसान न था. 
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' का जन्म ३ दिसंबर, १९५७ को ऐरी फिरोजपुर ( जिला सुल्तानपुर) में श्री रामनारायण यादव व श्रीमती करमा देवी के घर हुआ. बचपन में ही शांतिदेवी से विवाह हो गया. शान्ति जी पढ़ती थीं और वे भैंसे चराते थे. गाँव में चर्चा होती कि रमाशंकर की पत्नी उन जैसे अनपढ़ को छोड़ देगी. इसी भय से विद्रोही शिक्षा के प्रति प्रेरित हुए. प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई , फिर सरस्वती इंटर कालेज, उमरी से इंटर पास किया और राज डिग्री कालेज, बनवारीपुर, सुलतानपुर से बी.ए. किया. एल.एल. बी. की पढ़ाई धनाभाव के चलते पूरी नहीं कर पाए. नौकरी की, लेकिन नौकरी ज़्यादा दिन उन्हें बांध नहीं पाई. १९८० में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आ गए. १९८३ के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकल दिए गए. १९८५ में उनपर मुक़दमा चला. तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा. वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते रहे, यहाँ तक कि कल तक जब उन्होंने आखिरी साँसें लीं. जे़ एन. यू. में रहने के  चलते विद्रोही की आवाज़ दिल्ली की सडकों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने तमाम तरह के लोकतांत्रिक जुलूसों, प्रदर्शनों के समय दशकों तक गूंजती रही है. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद वे २००८ के राष्ट्रीय सम्मलेन में बने जो कवि धूमिल के गाँव खेवली में हुआ था. उसके बाद से दिल्ली के  बाहर भी उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ आदि तमाम जगहों पर आयोजनों और आन्दोलनों में बुलाए जाते. विद्रोही कविता लिखते नहीं , कहते थे. उनकी खडी बोली की काफी कवितायेँ मित्रों ने लिपिबद्ध कीं जो 'नयी खेती' संग्रह में छपीं. कचोट इस बात की है कि उनकी ढेरों अवधी रचनाएं रिकार्ड नहीं की जा सकीं. एक स्मृति सदा के लिए खो गयी.    
याद आता है कि गोरख पाण्डेय के गाँव जाते हुए कैसे बच्चों जैसी जिज्ञासा से भरे और उत्फुल्ल थे. आन्दोलनों और प्रतिवाद सभाओं के दौरान कविता सुनाकर बच्चों की तरह उनका खुश होना, उसे अपना एकमात्र तमगा और पुरस्कार बताना याद आता है. याद आता है पटना के गांधी मैदान के निकटवर्ती चौराहे पर उनके कविता-पाठ के दौरान रिक्शेवालों, खोमचेवालों और मजूरों का स्वतःस्फूर्त जुटना और ताली बजाना. विद्रोही जहां जाते, हाथों हाथ लिए जाते. बाहर के लोग भी उन्हें उतना ही प्यार करते जितना उन्हें जे.एन.यू. के छात्रों से हासिल हुआ था. जे. एन.यू. में नबारूण दा के  काव्यपाठ के कार्यक्रम के बारे में सुधीर सुमन ने ११ दिसंबर, २०११ को मुझे विस्तृत मेल लिखा जिसका एक अंश नबारूण और विद्रोही की भेंट के बारे में था. दुर्ग में दोनों की मुलाक़ात हो चुकी थी. सुधीर ने लिखा, " जेएनयू के कार्यक्रम से बाहर निकलते वक्त जिस गर्मजोशी और प्यार से नबारूण दा छात्रों और जनता के प्यारे कवि विद्रोही से गले मिले, वह मेरी चेतना में एक बेहद सुकूनदेह अहसास की तरह दर्ज हो गया, जैसे बेचैन दिल को करार आ गया। पूरे देश में, खासकर हिंदी पट्टी में विद्रोही को जनता प्यार करती है, छात्रों के बीच वे बेहद लोकप्रिय हैं। उन्हें अपने लिए कोई कोई फंड, कोई पुरस्कार, सरकारों की कोई नजरे-इनायत नहीं चाहिए, उनके कवि को किसी साहित्यिक प्रोमोटर की जरूरत नहीं है..... आंदोलनकारियों और सामान्य जनता के बीच वे मशहूर हैं...., मैंने मन ही मन नबारूण दा को सलाम किया कि उन्होंने जनता के कवि को सम्मान दिया.., शायद यही जनता के क्रांतिकारी कवि की असली पहचान है।" आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं. क्या सचमुच वे हमारे बीच नहीं हैं? विद्रोही इसे नहीं मानते. यकीन न हो तो उनकी ही एक कविता के इस अंश से आपको तसल्ली हो जाएगी-
"मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ 
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ 
और गा रहा हूं...... "

( प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)