(अभी हाल में ही रामजी राय की
पुस्तक 'ज़माने का चेहरा' जन
संस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल(सांस) द्वारा प्रकाशित हुई है. रामजी राय की इस
पुस्तक में उन महत्त्वपूर्ण साहित्यिक-राजनीतिक बहसों को मार्क्सवादी नजरिये देखा-परखा
गया है. जिन पर मार्क्सवाद विरोधी अवसरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा हमेशा धुंधलका
बनाये रखने की कोशिश की जाती रही. इस पुस्तक की भूमिका के लेखक प्रणय कृष्ण है. इस
भूमिका पढ़ने से ही पुस्तक का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है... राजन
विरूप)
कामरेड रामजी राय द्वारा अलग-अलग समयों पर लिखे साहित्यिक, सांस्कृतिक, समाज, राजनीति और
इतिहास संबंधी चुने हुए निबन्धों का यह संकलन पाठकों को समर्पित है. छात्र जीवन से
ही भाकपा (माले) के पूरा-वक्ती कार्यकर्ता के बतौर
काम करते हुए उन्होंने यह दिखलाया है कि एक ओर साहित्य और संस्कृति , तो दूसरी ओर
क्रांतिकारी राजनीति में सक्रियता एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों की द्वन्द्वात्मक एकता
से निष्पन्न दृष्टि ने इन निबन्धों में एक विलक्षण ऊर्जा भर दी है जो 'प्रतिरोध की
संस्कृति' और क्रांतिकारी मार्क्सवादी राजनीति के कार्यकर्ताओं के लिए समान रूप से
विश्वसनीय और प्रेरक वैचारिक निधि है.
सहानुभूतिकर्ता
नहीं, सक्रिय कार्यकर्ता की नज़र
रामजी राय अपने राजनीतिक, वैचारिक अनुभव और
साहित्य-दृष्टि से ही इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि मुक्तिबोध के 'मूल्य-सत्य सहानुभुतिकर्ता
बनने भर की नहीं अपनी क्रियागत परिणति के लिए सक्रिय कार्यकर्ता या कम से कम
सक्रिय कार्यकर्ता-जैसा ही बनने की मांग करते हैं.' उनकी यही दृष्टि
मुक्तिबोध और नागार्जुन के क्रांतिकारी संवेदनात्मक उद्देश्य की सम्पूर्णता
में पहचान को संभव बनाती है, जिसे 'सामाजिक जनवाद' से प्राप्त दृष्टि समझने में
नाकाम रही है. मुक्तिबोध का आत्म-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष और कम्युनिस्ट आंदोलन के
भीतरी वैचारिक संघर्ष और विश्व-इतिहास के गतिमान संघर्षों से पूरे तरह नत्थी है, इस तथ्य को गहराई से समझे
बगैर उनके कथ्य, शिल्प, प्रतीक, बिम्ब -किसी चीज़ की व्याख्या एकांगी ही हो सकती
है, जैसी उनके तमाम व्याख्याकारों ने की भी है. 'मुक्तिबोध : नक्सलबाड़ी का अवांगार्द कवि'
शीर्षक लेख मुक्तिबोध को समझने के ज़रूरी सूत्र विकसित करता है और तमाम वैचारिक और सौंदर्यशास्त्रीय जालों
को साफ़ करते हुए २० वीं सदी के इस महान कवि के वास्तविक क्रांतिकारी आशयों को स्पष्ट
करता है. नागार्जुन की अग्निधर्मी चेतना पर 'कुछ अनजाने और अधिकतर जान-बूझ कर' राख
गिराने, उनकी कविता के क्रांतिकारी पहलू को भुलाने, मिटाने, विकृत करने और 'जनकवि
होने के नाते किसी भी जनांदोलन पर कविता लिख देने वाले कवि' के रूप में उन्हें
'अभूतपूर्व सामान्यताओं में डुबो देने' के खूब प्रयास हुए. 'नागार्जुन नक्सल मिजाज़
के रचनाकार थे' शीर्षक लेख इन्हीं प्रयासों के खिलाफ उनकी 'अग्निधर्मी चेतना की
समग्रता और जीवन-स्वप्न की पुनःस्थापना' के दायित्व-बोध से लिखा गया है. यह लेख
नागार्जुन के बारे में सामाजिक जनवादी समझ और सोच, फासिस्टों द्वारा उनकी भारत-चीन
युद्ध के सन्दर्भ में लिखी कविताओं को आधार बनाकर उनके विरुपीकरण तथा उत्तर-वादी
सैद्धांतिकी और अस्मिता-विमर्श की चौहद्दी में घटाकर
उनके साहित्य के पाठ का सुदीर्घ प्रत्याख्यान प्रस्तुत करते हुए इस
दायित्व-बोध को निभाता है. मुक्तिबोध और नागार्जुन भारत में जनक्रांति का तसव्वुर
रचते हैं, किसी शांतिपूर्ण संक्रमण के भुलावे में नहीं पड़ते. आज़ाद भारत के घनघोर
अंधेरों का यथार्थ सर्वेक्षण उनके काव्य को यह भूमि प्रदान करता है जहां नए भारत
का 'भविष्य-स्वप्न' जनक्रांति से जन्मता और आकार लेता है.
मुक्तिबोध
रामजी राय के गाढे के साथी हैं. जीवन-जगत के हर प्रसंग में मुक्तिबोध की रचनाओं से
आती रौशनी उन्हें अपने आगोश में ले लेती है. इस संग्रह का शीर्षक और इसका समर्पण,
दोनों इसकी तस्दीक करते हैं. मुक्तिबोध संग्रह के लगभग हर लेख में कुछ कहते-सुनते
दिखाई देंगे. संग्रह में एक लेख का शीर्षक है 'अमेरिका का खाडी युद्ध और
मुक्तिबोध'. मुक्तिबोध की १९५० से १९५७ के बीच लिखी २६-२७ पृष्ठों की अधूरी और
अचर्चित कविता 'ज़माने का चेहरा' का उत्तरार्द्ध अमेरिका द्वारा खाडी क्षेत्र को
साम्राज्यवादी रणक्षेत्र में बदल देने का चित्र उपस्थित करता है. ईराक पर अमेरिकी
हमले के समय रामजी राय इस कविता को बार-बार पढते और हैरान होते हैं. क्या कारण है
कि मुक्तिबोध की कविताओं की सर्चलाईट भविष्य में भी इतनी दूर तक रौशनी फेंक सकती है जिसमें जमाने का चेहरा
इतना साफ़ दिख जाता है? रामजी राय इसे यों समझते हैं, " मुक्तिबोध का काव्य
विवेक और उस की अग्नि मूलतः द्वितीय विश्व युद्ध और उस के बाद की विश्व राजनीतिक
प्रक्रिया से गहरी मुठभेड़ की उपज है, जो उनके उपनिवेशवाद-विरोधी भारतीय जनता के मुक्तिसंघर्षों से उपजे काव्य
विवेक का उच्चतर विकास है." अगर उनकी कविता अपने लिखे जाने के आधी शताब्दी
बाद की घटना- अमेरिका का खाडी-युद्ध और अरब वीरों का प्रतिरोध इतनी निश्चयात्मकता
के साथ दर्ज करती है, तो उस काव्य-विवेक की गहराई को किस तरह समझा जाए. रामजी राय
लिखते हैं, "महज कुछ घटनाओं के आधार पर निर्मित अनुमान के सहारे इतनी
निश्चयात्मकता के साथ नहीं लिखा जा सकता. ऐसा
विश्व सभ्यता के संवेदनशील अनुशीलन और विभिन्न
देशों की राजनीतिक, कूटनीतिक गतिविधियों व हलचलों पर गहरी वैज्ञानिक नजर रख्नने के जरिए ही संभव हो सकता है. इस निश्चयात्मकता
के स्रोत हमें मुक्तिबोध की विश्व राजनीति पर लिखी उनकी टिप्पणियों में मिलते हैं,
जिन्हें उन्होंने समय -समय पर लिखा. विश्व राजनीति पर लिखी गई टिप्पणियों का अस्सी प्रतिशत नई अमरीकी
रणनीति, उस के मंसूबे और उस के केंद्र में अरब राष्ट्र को लेकर ही
है. इन टिप्पणियों की भाषा शीत-युद्ध की कूट भाषा को भेदती है और वास्तविकता को
सतह पर ला खड़ा करती है." रामजी राय
का मुक्तिबोध से रिश्ता कुछ वैसा ही है, जैसा मुक्तिबोध का उस 'बुज़ुर्ग
उस्ताद'(कबीर) से है.
गरीबों की होती
है एक जात
नागार्जुन भी लेखक
के लिए एक ऐसे कवि हैं, जिन्हें वह अनेकानेक प्रसंगों में याद रखता है. भोजपुर
के क्रांतिकारी किसान संघर्ष का ज़िक्र
जहां जिस लेख में भी आया हो, वहाँ
नागार्जुन मिलेंगे 'हरिजन गाथा' और 'भोजपुर' शीर्षक कविताओं के साथ. अकारण नहीं कि
भोजपुर किसान संघर्ष के महान नायकों में से एक तथा हमारे समय में भारतीय
उप-महाद्वीप के कम्युनिस्ट आंदोलन के सर्वाधिक मौलिक व सृजनात्मक क्रांतिकारी
विनोद मिश्र तथा नागार्जुन की ऐतिहासिक मुलाक़ात को वह यों दर्ज करता है, " अगर
उस क्षण को कैमरे में उतार लिया गया होता, तो वह किसी भी फिल्म से बड़ी फिल्म होती. मुझे वह क्षण
रोमांचित करता है, जब डेढ़ मिनट
तक वे एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर खडे थे, चुपचाप . फिर दोनों
एक दूसरे से आग्रह करते रहे कि पहले आप बैठिए , पहले आप. विनोद
मिश्र के बैठते-बैठते नागार्जुन ने कहा कि ‘मैं निराश नहीं हुआ हूं, कामरेड. अखबार वाले मुझसे पूछते हैं कि क्या समाजवाद का अंत
हो गया,
मैं कहता हूं कि जब तक मजदूर के तन पर फटी हुई गंजी रहेगी,
तब तक समाजवाद का अंत नहीं होगा'." यह है इतिहास के
अंत, दर्शन के अंत, कविता के अंत की घोषणाओं पर उस कवि का जवाब , खुद जिसके
पार्थिव जीवन की सांध्य-बेला है. यह है वह क्रांतिकारी आशावाद जो विपरीततम
परिस्थितियों में भी उत्पीडित जनता के मुक्ति-स्वप्न की दुर्घर्ष अपराजेयता से प्रतिबद्ध है.
'नागार्जुन का जीवन-स्वप्न' शीर्षक लेख समय के उस बिंदु पर लिखा गया है,
जहां सोवियत संघ के बिखर जाने से निराशा का सर्वतोन्मुखी प्रचार है, जहां सामाजिक
वर्गों की मुक्ति को शासकीय 'अस्मितावाद' की चौहद्दी में समेट लिए जाने के प्रयास
ज़ोरों पर हैं, जहां उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण निर्विकल्प बताए जा रहे हैं. रामजी राय इस माहौल में फिर नागार्जुन के पास
जाते हैं. बताते है कि 'हरी दूब' का रूपक महज नागार्जुन के अपने व्यक्तित्व का
नहीं, सिर्फ जिजीविषा का नहीं, बल्कि 'जनसाधारण' का है जो ' कुचले जाने,
चरे जाने, शीत-ताप सहते हुए भी जीने और हरे-भरे रहने के यथार्थ और कामना' का रूपक है.
जनसाधारण का ऐसा रूपक रचनेवाला कवि ही १९९२ में लिखी कविता में सोवियत विघटन के
ज़िम्मेदार गद्दार येल्तसिन को 'साले, हरामी' तक कहता है. राम जी राय सर्वत्र
निराशा देखने वालों से सवाल करते हैं, " इतना क्रोध किसी ने देखा है? क्या यह निराशा से पैदा हुआ क्रोध है?"
जीवन की सांध्य-बेला में नागार्जुन 'अपने खेत में'(१९९६) में है, 'समाजवाद के
सपनों' की खेती करते हुए, मुक्त बाज़ार के दिनों में 'बाजारू बीजों की निर्मम'
छंटाई करते हुए. आज सबके सामने साफ़ है,(जब नागार्जुन नहीं हैं) कि पिछले दो दशकों
में भारत के लाखों किसानों की आत्महत्या,अन्य बातों के अलावा (बी.टी. काटन
सरीखे)इन्हीं बाजारू बीजों की निर्मम छंटाई न होने देने का परिणाम है. रामजी राय
नागार्जुन की भाषा की धोखादेह सादगी के भीतर समेटे हुए हुए तूफ़ान की ओर इशारा करते
हैं. उनकी समूची काव्य-यात्रा में दर्ज दलित, स्त्री और आदिवासी जीवन के मार्मिक
संघर्षमय प्रसंगों, घटनाओं और कथाओं से एकबार तेज़ी से
गुजरते हुए रामजी राय जनता के मुक्ति-संघर्ष के इस कवि के बुनियादी स्वप्न
को फिर से सामने रखते हैं, जिसे शासकीय 'अस्मितावाद' की खंड-दृष्टियों में समोया/डुबोया
नहीं जा सकता, जो स्वप्न प्रेमचंद का था, भगत सिंह का था, जिसकी ज़रूरी शर्त पूरी
सादगी के साथ नागार्जुन की इस काव्य-पंक्ति में व्यक्त होती है-
" किसी की नहीं सुनो आलतू-फालतू एक भी बात
गरीबों की होती है एक जात."
जिस तरह मुक्तिबोध नक्सलबाड़ी के अवांगार्द कवि
है और नागार्जुन नक्सल मिजाज़ के कवि हैं,
उसी तरह, लेकिन उनसे अलग पाश नक्सलबाड़ी के अपने कवि हैं. 'हमारे समय के कवि: पाश' शीर्षक लेख
में रामजी राय का कहना है , "नक्सलबाड़ी आंदोलन
भले ही बंगाल में फूटा, उसे अपना कवि पंजाब में मिला. अवतार सिंह पाश के रूप में. संयोग देखिए कि पाश
की पहली कविता भी 1967 में ही छपी जिस वर्ष नक्सलबाड़ी का आंदोलन फूटा. फिर तो ‘नक्सलबाड़ी’ और ‘पाश’ दोनों जैसे अभिन्न हो गए..... पाश ने कला की समस्त ऊंचाइयों व बारीकियों के साथ नक्सलबाड़ी
आंदोलन की मूल भावनाओं को कविता में उतारा.” नक्सलबाड़ी का आंदोलन उनकी कविता को
पैदा करता है, उसमें आग की भरता है, रोमान भी. आंदोलन के धक्का खाने और
टूटने-बिखरने को वे अपने स्नायुओं पर झेलते हैं , पूरी ईमानदारी से.
पाश ने अपने कवि-जीवन में वह सब जिया जो जनता का एक महान आंदोलन जीता है, उसके बिखराव और दमन ने
उनमें भी भटकाव और भ्रम, निराशा और अंतर्मुखता की अवस्थाओं को पैदा किया, आखिरकार 'वे नक्सलबाड़ी के कवि थे,
उस के राजनीतिक नेता नही', लेकिन वे कहीं भी नक्सलबाड़ी को
नकारते नहीं. आंदोलन की कमियों कमजोरियों पर प्रतिक्रिया करते हैं, लेकिन ईमानदार आत्मसजगता के साथ
जिसमें अपनी भी कमजोरियों की शिनाख्त और स्वीकार है. खालिस्तानियों की गोलियों का शिकार होकर 'पाश' ने शहादत का वरण किया. पाश की काव्य-यात्रा से गुजरकर लेखक का निष्कर्ष
है, " मुक्तिबोध के बाद संभवतः पाश
ही वह कवि हैं जिन्होंने अपने समय से सबसे गहरी और तगड़ी मुठभेड़ की है. यही वजह
है कि उनकी कविता न केवल भाषा की सीमा लांघ गई बल्कि वे उसी भाषा के कवि बन गए जिस
भाषा में उन्हें पढ़ा जा रहा हो."
वर्तमान में भविष्य का प्रतिनिधित्व : मुक्ति के संघर्ष और 'विमर्श'
कोई भी
युगद्रष्टा रचनाकार 'वर्तमान में भविष्य का प्रतिनिधित्व' करने के चलते ही सिर्फ
'स्मृति-सन्दर्भ नहीं, बल्कि जीवित प्रसंग' बना रहता है. रामजी राय के लिए
मुक्तिबोध, नागार्जुन और प्रेमचंद इसीलिए जीवित प्रसंग हैं. 'स्मृति सन्दर्भ नहीं,
जीवित प्रसंग हैं प्रेमचंद' शीर्षक लेख इस नुक्ते का अर्थगर्भ विस्तार है. भारत की
आज़ादी के संघर्ष के दो रास्ते थे. एक नौरोजी, रानाडे आदि आरंभिक राष्ट्रवादियों के
मतों पर आधारित गाँधी जी के नेतृत्व वाला कांग्रेसी रास्ता जो न तो साम्राज्यवादी
लूट को 'महान ब्रिटिश साम्राज्य' के चरित्र के अनुकूल मानता था और न ही इस लूट के
देशी आधारों की शिनाख्त कर सकता था. इसीलिए इस रास्ते में गोरों के अंतःकरण को जगाने
पर इतना बल था. दूसरा रास्ता मार्क्स के मतों पर आधारित जनविद्रोह संगठित करने का
क्रांतिकारी रास्ता था जिसे भगत सिंह ने भी अपनाया था. इस रास्ते के हामी
गांधीवादी कार्यक्रमों में भाग भी लेते थे, तो जनविद्रोह को संगठित करने के
उद्देश्य से ही और यही भूमिका साहित्य के धरातल पर प्रेमचंद की थी. रामजी राय लिखते हैं- 'प्रेमचंद मूलतः इस दूसरी
धारा के रचनाकार हैं." वे साम्राज्यवादी लूट के देशी आधार यानी ज़मीदार-महाजन
की भी शिनाख्त करते हैं और साम्राज्यवाद-विरोध की वास्तविक देशी शक्ति यानी
किसान-मजूर की भी. रामजी राय उनके साहित्य के अनेक प्रसंगों को रेखांकित करते हुए
बताते हैं इस रास्ते का उन्होंने सचेत चुनाव किया था. 'आहुति' कहानी का नायक '
विश्वंभर अपनी छात्रा दोस्त रुक्मिणी को न तो शराब की दुकानों की पिकेटिंग में
मिलता है,
न विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करते समय. बल्कि वह उसे देहात
जाने के लिए तैयार रेलवे स्टेशन पर मिलता है. अपनी परीक्षा,
अपने कैरियर सबकी आहुति देकर.' जो लोग यह कहते हैं कि
प्रेमचंद चूँकि गाँव के थे, लिहाजा
किसानों को ही सबसे बेहतर जानते थे, अतः स्वाभाविक है कि किसान ही उनके साहित्य के
केन्द्र में होते, ऐसे लोगों से असहमति व्यक्त करते हुए राम जी राय जोर देकर कहते
हैं कि प्रेमचंद ने किसानों का जीवन सचेत प्रयत्न से जाना था क्योंकि वे उस वर्ग
या समुदाय के नहीं थे. यह असहमति सचेतनता के विरोध पर आधारित उस सिद्धांत से भी है
जिसके अनुसार आप जिनके बीच रहते हैं, जिन्हें जानते हैं, उनके बारे में ही लिखिए.
प्रेमचंद इसका जीता-जागता प्रत्याख्यान हैं. रामजी राय प्रेमचंद के अधूरे उपन्यास
'मंगलसूत्र' में प्रेमचंद की बदलती रचना-प्रक्रिया के नए दौर को लक्षित करते हैं,
" इस नई रचना प्रक्रिया का एक प्रमुख तत्व है मिलने जा रही स्वतंत्रता के
भीतर निहित अंतरविरोध और इस आधार पर बन
रहे समाज की वास्तविकता. कभी-कभी यह सोचकर बड़ी तकलीफ होती है कि अधूरा ही सही
लेकिन पूरी तौर पर मंगल का यह सूत्र बाद के हमारे रचनाकारों से आखिर छूटा क्यों
कर!" रामजी राय के निकट अधूरे
उपन्यास 'मंगलसूत्र' में ही प्रेमचंद सर्वाधिक नए भारत की आगामी संभावित त्रासदी
को साफ़ देख रहे हैं क्योंकि वे उस
स्वतंत्रता संग्राम को स्पष्ट देख रहे हैं जिसका रास्ता 'मि.जान की जगह सेठ
गोविन्दी को' सत्ता में लानेवाला है, इसे 'आहुति' कहानी की रुक्मिणी देख रही है, 'गबन' उपन्यास के
देवीदीन खटिक देख रहे हैं. सेठ गोविन्दी
ही नहीं बल्कि 'गोदान' के राय साहब भी इस नयी सत्ता-व्यवस्था के भागीदार होंगे,
इसे पूरा 'गोदान' उपन्यास पूर्वाशित कर रहा है. 'गोरे अंग्रेजों की जगह काले
अंग्रेजों' के आ जाने के खतरे को अपने तौर पर भगत सिंह पहचान रहे हैं , बिलकुल
वैसे जैसे प्रेमचंद. राम जी राय लिखते हैं, " प्रेमचंद की परवर्ती रचना
प्रक्रिया के भीतर साम्राज्यवाद के देशी आधार
के खिलाफ निशाना साधने की चेतना और साफ रूप
में विकसित होती दिखती है. ‘मंगलसूत्र’
की रचना प्रक्रिया इस का बेहतर उदाहरण है. लेकिन यहीं इस
रचना प्रक्रिया में एक त्रासदी, एक पीडि़त विवेक चेतना भी समाई हुई दिखती है........ और आप देखिए
कि जिस पूंजी को लेकर गोविंदी आए उस का मुनाफा एक ओर मि. जान जो गए और दूसरी ओर जमींदार ‘ज्ञानशंकर’ से रिश्ते बनाए रखने पर टिका हुआ है. और जब गोविंदी इस चरित्र के साथ सत्ता पर
काबिज हों तो मि. जान प्रत्यक्ष रूप से भारत से जाकर भी, अपरोक्ष रूप से भारत में मौजूद रहेंगे ही. तब फिर भारत भी एक पिछड़ा भारत रहेगा. वह एक आधुनिक
भारत नहीं बन पाएगा. यह अनिवार्य है."
यह लेख
स्त्री-पृरुष के बीच लोकतांत्रिक संबंधों
की बाबत भी प्रेमचंद को 'जीवित प्रसंग' के रूप में उपलब्ध करता है. जिस समय यह संग्रह छप रहा है, उस से ठीक पहले दिल्ली
रेपकांड के खिलाफ स्त्रियों की बेख़ौफ़ आज़ादी के अभूतपूर्व आंदोलन का एक दौर गुजरा
है, बिलकुल अभी अभी. एक क़ानून भी
इसके दबाव में सेठ गोविन्दी और
ज्ञानशंकरों के आज के वंशजों को पारित करना पड़ा है, बेशक संसद में बहस के दौरान
अपनी सारी कुत्सा का मुजाहिरा करते हुए उन्होंने इसे संशोधित कर पारित किया. यह प्रेमचंद की मालती है (गोदान) जिसे 'स्त्री-पुरुष
बन कर रहने से मित्र बन कर रहना' अधिक सुखकर लगता है, 'रंगभूमि' की सुभागी को 'ऐसा
पति अच्छा नहीं लगता जो औरत के चरित्र के पीछे डंडा लेकर पड़ा रहे'. 'आहुति' कहानी
में रुक्मिणी और आनंद का प्रेम हो, या गोदान में धनिया और होरी या फिर मातादीन और
सिलिया का संबंध , नए संबंधों की संघर्षधर्मी चेतना का विकास प्रेमचंद किसानों के
भीतर से होता दिखाते हैं. आज के दौर में जहां 'खाप पंचायतें' पूरे परवान पर हों ,
जहां बलात्कारों का अंतहीन सिलसिला २१वीं सदी के भारत की मूल्य-व्यवस्था का एक
प्रमुख संकेत-चिन्ह बनने पर आमादा हो, जहां सांप्रदायिक-फासिस्ट गुंडा -वाहिनियाँ
प्रेमी-युगलों पर वैलेंटाइन डे के दिन हमलों को एक सालाना कर्मकांड बनाए हुए हैं,
वहाँ प्रेमचंद का रचना संसार २१वीं सदी में भी राह दिखा रहा है कि भारत में नए
आधुनिक तथा जनतांत्रिक मूल्य कहाँ से और किन संघर्षों की बदौलत निकलेंगे . रामजी
राय के शब्द हैं, " मैं प्रेमचंद को एक
जीवित प्रसंग कह रहा हूं तो इसलिए भी कि आज भी भारत को नवउपनिवेशिक खतरे और
पिछड़ेपन से मुक्त कर एक मुकम्मल आधुनिक भारत बनने के स्रोत किसान ही हैं,दलित,
कमजोर, गरीब,किसान. इसलिए नहीं कि किसान संख्या में ज्यादा हैं बल्कि इसलिए कि उनको आधुनिक
बनाए बगैर भारत को आधुनिक नहीं बनाया
जा सकता. और आधुनिक बनने की सबसे ज्यादा सकर्मक सामर्थ्य और ललक भी किसान में ही है." मातादीन के
मुंह में हड्डी डालकर दलितों ने न केवल एक भ्रष्ट धर्म-मूल्य को तोड़-फोड दिया, न
केवल दलित समाज में विक्सित हो रही आत्मसम्मान की संघर्ष भावना को अभिव्यक्त किया,
बल्कि एक नए मानव -मूल्य, सडी-गली परम्पराओं के खिलाफ सच्ची घृणा पर आधारित एक नए
संघर्षधर्मी मानंववाद की भी आधारशिला रखी. प्रेमचंद के जीवित प्रसंग होने का यही पाठ रामजी राय
हमारे सोचने-विचारने के लिए प्रस्तुत करते हैं.
रामजी राय स्त्री-मुक्ति के स्वप्न और संघर्ष के
सवाल से इस संग्रह के तमाम लेखों में दो-चार होते हैं. प्रसंग चाहे मुक्तिबोध हों,
नागार्जुन हों , प्रेमचंद हो या शरच्चंद्र के 'शेष प्रश्न'- वे हर कहीं स्त्री
प्रश्न के भारतीय और वैश्विक सन्दर्भ,
भारतीय जनता के समग्र मुक्ति-स्वप्न से उसके संबंध का सतत अन्वेषण करते है और
मूल्यवान निष्कर्षों तक पहुंचते हैं. 'समाज की महिला दृष्टि' शीर्षक लेख हमारे देश
के इस दौर के एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल अर्थात सामाजिक अस्मिताओं पर आधारित
दृष्टियों और मार्क्सवाद के साथ उनके संबंध पर केंद्रित है. लेखक की निगाह में,
"मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के अंदर सापेक्षिक रूप से स्वतंत्र दलित दृष्टि की
स्वीकृति भारत की ठोस स्थितियों में वर्ग को सही रूप में समझने, वर्ग संघर्ष को संचालित
करने व व्यापक बनाने के लिए अपरिहार्य है.
कहने का मतलब यह है कि जरूरत वर्ग की कैटेगिरी को विस्तृत करने की नहीं; किसी
देश-काल की ठोस ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ उपस्थित वर्ग को
सही-सही और बेहतर रूप में समझने की है." समाज की महिला दृष्टि का विश्व-ऐतिहासिक
और हिन्दुस्तानी परिप्रेक्ष्य तथा मार्क्सवाद के साथ उसका संबंध
गहरी अंतर्दृष्टि के साथ इस लेख में रेखांकित हुआ है. लेखक का कहा है कि,
"समाज में प्रचलित ऐसे सैकड़ों मुहावरे, लोकोक्तियां, लोकगीत,
लोककथाएं और लोकआख्यान हैं जिनसे गुजरते हुए आप को साफ-साफ
लगेगा कि पुरुष दृष्टि के समांतर समाज , इतिहास ,
परंपरा और संस्कृति को देखने की एक महिला दृष्टि भी है जो
ज्यादा रचनात्मक, न्यायसंगत,
यथार्थपरक, भौतिक और मार्क्सवादी नजरिए के नजदीक है और समाज परिवर्तन के संघर्ष में उसके
निकट की सहयोगी." इसी संग्रह में 'इतिहास निर्माण और महिलाएं' शीर्षक लेख
समाज की महिला दृष्टि के विश्व-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिहाज से अत्यंत
महत्वपूर्ण है.
दलित प्रश्न पर गहराई से विचार
करते हुए रामजी राय " ड़ा.अम्बेडकर: एक पुनर्मूल्यांकन' शीर्षक लेख में अनेक
विचारणीय प्रश्न और निष्कर्ष प्रस्तुत
करते हैं. शुरू में ही वे स्पष्ट कर देते
हैं कि गाँधी-आम्बेडकर विवाद एक ऐतिहासिक अध्याय है, जीवित प्रसंग नहीं क्योंकि गाँधी विचार की अगर कोई बची-खुची
प्रासंगिकता है तो वह यथास्थिति को बनाए रखने के वैचारिक प्रतीक के रूप में ही
व्यवहार की जा रही है, जबकि अम्बेडकर के विचार आज भी यथास्थिति से टकरा रहे हैं, क्योंकि
जाति-व्यवस्था तोडने के उन्होंने जो अस्त्र विक्सित किए वे सामंती व्यवस्था के मर्म
पर ही चोट करते हैं, लिहाजा उनके पुनर्मूल्यांकन का सन्दर्भ मार्क्स के विचार ही
बनेंगे आज के सन्दर्भ में. अगर अम्बेडकर और मार्क्स के विचारों में अंतर्विरोध है,
तो उन्हें पहचाना जाना 'अंतर्संबंध' के लिए ज़रूरी है. इसी परिप्रेक्ष्य को आगे
बढाते हुए वे लिखते हैं, " डा. अम्बेडकर..... जानते थे कि किसी सिस्टम का
निर्माण एक सामाजिक, ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है. और उस के आर्थिक आधार भी
होते हैं. बाबा साहब ने कहा कि जाति व्यवस्था श्रम विभाजन पर आधारित नहीं है,
वह श्रमिकों के विभाजन पर आधारित है. आप इस के अंतर्संबंधों
पर सोचने की कोशिश करिए. जो श्रमिकों को
विभाजित करे वह एक ऐसी समाज व्यवस्था को बरकरार रखने का वैचारिक सांस्कृतिक आधार
दे रहा होगा, जो समाज व्यवस्था जाति से भिन्न किन्हीं अन्य आधारों पर खड़ी
हुई होगी. वह चिंतन जाति व्यवस्था के जरिए उस भिन्न आधार को सुरक्षित कर रहा होगा,
जिस पर वह समाज व्यवस्था खड़ी हो. इस लिए ध्यान दीजिए तो आप
को लगेगा कि बाबा साहब के सामने मूल प्रश्न दरअसल,
यही था कि इस समाज की बुनियादी इकाई क्या है - जाति या वर्ग?
यही रिडिल है,एक वैचारिक पहेली जो अम्बेडकर के यहां भी अनुत्तरित है."
रामजी राय अपने विश्लेषण में यह दिखलाते हैं कि अम्बेडकर यह जानते हैं कि
जाति-व्यवस्था सामंती भू-स्वामित्व की व्यवस्था पर चोट किये बगैर खत्म न होगी,
इसीलिए वे इसके खात्में के लिए सिर्फ आरक्षण, अंतरजातीय-विवाह या धर्म-परिवर्तन
जैसे उपायों पर आश्रित नहीं हैं, बल्कि भूमि के राष्ट्रीयकरण के विचार तक पहुंचते
हैं. रामजी राय रेखांकित करते हैं कि वर्ग उसी तरह महज आर्थिक इकाई नहीं है , जैसे
कि ड़ा. अम्बेडकर के यहाँ जाति महज सामाजिक इकाई नहीं है. लिखते हैं, "वर्ग जिस समाज में उपस्थित
होता है, जिस इतिहास में उपस्थित होता है,
जिस सांस्कृतिक वातावरण में वह रहता है,
उन सभी की विशिष्टताओं को रिफ्लेक्ट,
प्रतिबिंबित करता है. भारत में वर्ग जाति को भी रिफ्लेक्ट
करेगा,अगड़े-पिछड़े को भी और वह उन तमाम सांस्कृतिक विशिष्टताओं
को भी रिफ्लेक्ट करेगा जिनके बीच में वह वर्ग अस्तित्वमान है,
रह रहा है. इसलिए जाति की भाषा में वर्ग मौजूद रहेगा और
वर्ग की भाषा में जाति की बात भी मौजूद रह सकती है. इस को समझने और अलगाने की
जरूरत रहेगी."
साम्राज्यवाद-विरोध और भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोध
'बुश के बच्चों से बहस ज़रूरी है'
शीर्षक लेख विलियम डैलरिम्पल की पुस्तक 'द लास्ट मुग़ल' के बहाने प्रथमतया ऐसे तमाम
साम्राज्यवाद के पक्षधर विचारकों तथा उन वाम-उदारवादियों से गंभीर बहस है जो १८५७
के महान स्वाधीनता संग्राम के महत्त्व को उसकी १५०वीं वर्षगाँठ के अवसर पर न केवल
नकार रहे थे, बल्कि उसकी विद्रूप व्याख्याएं पेश कर रहे थे. क्रांतिकारी
वामपंथ १८५७ के विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व और
भारतीय क्रांति के लिए उसकी महान विरासत का वाहक है. ज़ाहिर है कि अमरीकी 'वार आन
टेरर' तथा उत्तर पूँजीवादी 'सभ्यताओं के संघर्ष' की सैद्धांतिकी की वैचारिक
छाँव में पले-पुसे बुद्धिजीवियों द्वारा भारतीय
जनता के उस महान संघर्ष के विकृतिकरण के खिलाफ हमारे सांस्कृतिक आंदोलन ने पुरजोर
प्रत्याक्रमण किया. साहित्यिक दुनिया के
तमाम वाम-उदारवादियों ने उसे 'अस्मितावाद' के शासकीय संस्करण के चश्में से देखा हो
, सिर्फ इतना ही नहीं हुआ -बल्कि वे जाने -अनजाने उस महान संघर्ष के विरुद्ध
पुराने और नए साम्राज्यवाद के तमाम भोंडे तर्कों, भ्रामक प्रचार और दुर्व्याख्याओं
के भी शिकार हुए. वास्तव में १८५७ को नकारना न केवल भारतीय आजादी की लड़ाई में
दलितों और दूसरे पराधीन तबकों की भागीदारी और उसकी विरासत पर उनकी दावेदारी को
नकारना है, बल्कि भारतीय क्रान्ति में किसान जनता की भूमिका को अतीत से ही खारिज
करते हुए वर्तमान और भविष्य में भी संदिग्ध बताने का उपक्रम है. ऐसे में बहस उनसे भी ज़रूरी थी और है . यह लेख
क्रांतिकारी सांस्कृतिक आन्दोलन के इसी ज़रूरी कार्यभार यानी १८५७ की क्रांतिकारी
विरासत की पुरजोर हिमायत और उसके महत्त्व की पुनर्स्थापना को मुकम्मल करता है.
भारतीय रेनेसां एक ऐसा समुद्रमंथन
था जिसमें अमृत भी निकला और हलाहल भी. रामजी राय मुक्तिबोध, नागार्जुन, १८५७ को
लेकर चली बहसों , सभी जगह भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोधों और उनके संभावित
समाजवादी हल को आवश्यक सन्दर्भ बनाते हैं, जिसके बगैर भारतीय क्रान्ति की समस्याओं
पर भी ढंग से विचार नहीं हो सकता. नक्सलबाड़ी ने भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोधों की
शिनाख्त और उनके हल की ज़रूरत को भारतीय क्रान्ति की ज़रूरतों से जोड़ दिया. यही कारण
है कि राम जी राय के लेखन का भी वह ज़रूरी सन्दर्भ -बिंदु है. निर्मल वर्मा के संस्कृति-चिंतन को उन्होंने
'एक यूरो-इन्डियन का आत्म-बिम्ब' शीर्षक लेख में सही संज्ञा दी है. निर्मल वर्मा
शायद हिंदी के अकेले बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने उत्तर-आधुनिक औजारों से भारत में
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विचारधारा और उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति 'साम्प्रदायिक
फासीवाद' को सूक्ष्म, सम्मोहक शैली में वैधता प्रदान करने की कोशिश की है. निर्मल
वर्मा ने एक बड़ा साभ्यातिक घेरा लेकर 'भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र'
पुस्तक में उपरोक्त उद्देश्य से जिस वाग्जाल को रचा है, उसके रेशों को उधेड़ कर राम
जी राय ने उसके वास्तविक प्रतिक्रियावादी अंतर्य को उद्घाटित किया है. रामजी राय
इस पुस्तक में हर कहीं किसी भी विचार की उत्पत्ति के ऐतिहासिक मोड़ की पहचान करना
नहीं भूलते. बीतती बीसवीं सदी के वर्षों में निर्मल के इस संस्कृति चिंतन के
ऐतिहासिक उत्स की असंदिग्ध पहचान करते हुए वे लिखते हैं, "......इस किताब में
भाषा-शैली पुरानी और पुरोहितों जैसी है फिर भी कुछ चमकदार और तेवर भरी लगती है तो इस की वजह
समाजवाद का संकट-ग्रस्त होना और हमारे रेनेसां के रोमांटिक तर्कणावाद के विचारों से पैदा संस्थानों का अपने व्यंग्य-चित्रों में बदल जाना
है. नहीं तो स्वयं निर्मल वर्मा चाह कर भी यह सब न लिख पाते. " निर्मल से बहस
करते हुए राम जी राय उनके द्वारा बनाई गई 'भारतीयता' के बर-अक्स पाठकों को उस गतिशील
वास्तविक भारतीयता से रु-ब-रु कराते हैं जो 'धर्म-मर्यादित संस्कृति राष्ट्रवाद'
से व्याख्यायित और परिसीमित नहीं हो सकती. भारतीय रिनेसां की सामर्थ्य और सीमा को
गाँधी के उदाहरण से राम जी राय इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, "अपनी समस्त
वर्गीय चिंतनगत कमजोरियों और सीमाओं के बावजूद गांधी ही थे जिन्होंने प्रकृति की आधुनिक
खोज, रेनेसां के मर्म को अपना आधार बनाया.
उन्होंने किसी वैदिक मंत्र, किसी राम को स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक नहीं बनाया,
प्रतीक बनाया तो चरखे को. चरखा महज स्वदेशी का,
स्वावलंबन का ही नहीं,
अपनी भारतीय स्थितियों में आधुनिकता का,
प्रकृति की नई खोज का प्रतीक था. रेनेसां का भारतीयकरण था. बेशक अपनी सीमाओं के
चलते इसके सर्वतोमुखी विकास को वे नेतृत्व
नहीं दे सकते थे। फिर भी भारत के अचल
मनोहारी दृश्य की जगह हमारी आधुनिकता का आधार ,
भविष्य का नक्शा निर्मित करने की रेखाएं जिस ‘सांस्कृतिक त्रासदी’
में भारत डाल दिया गया था,
उससे निकलने का लक्षण पेश किया. और इस गांधी को अपना भारतीय ‘आत्म’ हासिल करने के लिए अपना यूरोपीयकरण करने और फिर उससे परे
निकल जाने की दरकार नहीं पड़ी."
संस्कृति और राजनीति का हिंदी-उर्दू क्षेत्र
इस संग्रह के तमाम लेखों में
अंतर्सूत्र की तरह व्याप्त है हिंदी-उर्दू क्षेत्र की राजनीति और साहित्य-संस्कृति
के विकास और उसकी सही दिशा की चिंता. इस चिंता का एक बड़ा पक्ष है साम्प्रदायिक
फासीवाद की समकालीन चुनौती. आज़ादी के आंदोलन और नवजागरण की भी बड़ी कमजोरी थी कि वह
साम्राज्यवाद और सामंतवाद से मुकम्मल लड़ाई न छेड़ सका, उनसे समझौता किया. "आजादी भी हमारे सामने
समझौते के रूप में आई - साम्राज्यवाद से समझौते के रूप में,
सामंतवाद से समझौते के रूप में,
संप्रदायवाद से समझौते के रूप में,
आधुनिकता और परंपरा के साथ समझौते के रूप में", इस
प्रक्रिया के अनेक साक्ष्य रामजी राय
अम्बेडकर , प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध से देते चलते हैं अपने लेख, 'हिंदी-उर्दू
क्षेत्र की राजनीति और साहित्य' में. ये समझौते तो साम्प्रदायिक फासीवाद के
फलने-फूलने की ऐतिहासिक ज़मीन प्रदान करते ही है, उसपर से १९९० के दशक तक आते-आते नेहरूवादी आर्थिक माडल की विफलता, कट्टरपंथ और
दक्षिणपंथ का अंतरर्राष्ट्रीय उभार, राजनीतिक व्यवस्था से गहराता असंतोष और राष्ट्रीय एकता के काल्पनिक और वास्तविक खतरों
ने उसे हमारे दौर में ठोस राजनीतिक रूप अख्तियार करने का मौक़ा दिया. विडम्बना यह रही कि कांग्रेसी
सरकारी प्रतिक्रिया उदार हिन्दू मत के इस्तेमाल और कानूनी उपायों तक सीमित रही और
वामपंथ की सामाजिक जनवादी पार्टियों ने भी साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में
इन्हीं औजारों को तथा लिबरल बुर्जुआ के नेतृत्व को येन -केन-प्रकारेण स्वीकार कर
लिया. साम्प्रदायिकता यदि एक आधुनिक विचारधारा है , तो उससे लडने के वैचारिक स्रोत
भी आधुनिक ही होंगे, पुरानी परंपरा से
नहीं आएँगे. यह तदर्थवाद है. राम जी राय दो-टूक यह भी कहते हैं कि," यह भी स्पष्ट कर दूं कि पिछड़ी जातियों के आरक्षण के रूप
में मंडल का समर्थन किया जाना चाहिए , ब्राह्मणवाद से कोई चार आना भी लड़ रहा हो तो उस का समर्थन
किया जाना चाहिए लेकिन अगर उस के जरिए वह संकीर्ण राजनीति कर रहा हो,
तो उस की संकीर्ण राजनीति का जमकर विरोध किया जाना चाहिए."
ब्राह्मणवाद भी साम्प्रदायिक फासिस्ट राजनीति का एक आयाम है, जिसके खिलाफ
दलित-पिछड़ी जनता गोलबंद भी खूब हुई ,लेकिन जिस संकीर्ण राजनीति का ऊपर उल्लेख है ,
वह जन-आकांक्षाओं से दगा ही करती रही. 'सामाजिक न्याय' की एक सरकार के समय मध्य बिहार
में दलित जनसंहारों का तांता लग गया , जिन सामंती ताकतों ने इसे अन्जाम दिया
उन्हें एक ओर साम्प्रदायिक फासिस्टों का तो दूसरी ओर कथित 'सामाजिक न्याय' की
सरकारों का संरक्षण प्राप्त रहा. राजनीति की मुख्यधारा में साम्र्प्रदायिकता-विरोध की राजनीति के सभी
संस्करण और उनकी पार्टियां अवसरवाद और तदर्थवाद के तहत फासिस्टों से मोलतोल,
संश्रय स्थापित करती रहीं और कुछ तो कि यू.पी. और बिहार में उनके साथ मिलकर सरकार
चलाने तक गई. नतीजा यह रहा कि आज क़ानून,
न्यायपालिका, मीडिया,सुरक्षाबल और नौकरशाही सहित सामाजिक जीवन का कोई पहलू नहीं जहां
फासिस्टों की दखल नहीं, वे सत्ता में हो या न हों. अकलियतों पर ज़ुल्म बढ़ा ही है,
घटा नहीं. साम्प्रदायिक फासीवाद से लडने की इन रणनीतियों ने उसे संजीवनी दी है. 'हिंदी-उर्दू
क्षेत्र की राजनीति और साहित्य' शीर्षक लेख इन रणनीतियों में निहित तदर्थवाद और
अवसरवाद, वैचारिक खोखलेपन की साहित्यिक परिणतियों की भी पड़ताल करता है. गुजरात
जनसंहार ने साम्प्रदायिक ताकतों के नंगे नाच और उसके सम्मुख साम्प्रदायिकता-विरोधी
शासकीय रणनीतियों की असहायता को भी हस्तामलकवत उपस्थित कर दिया. गुजरात सिर्फ
गुजरात तक सीमित नहीं है, इसे रामजी राय उसी समय लिखे 'साम्प्रदायिक फासीवाद के
खिलाफ संयुक्त अभियान ज़रूरी है' शीर्षक
लेख में रेखांकित करते हैं. आज जब
मीडिया और उद्योग-जगत में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रचार-युद्ध
चला हुआ है, तो यह बात और भी ज़्यादा साफ़ है सबके सामने.
हिंदी-उर्दू क्षेत्र की सांस्कृतिक
आबो-हवा बदलने में क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका
और ज़रूरत , उसके कार्यभार, उसकी ऐतिहासिक और फौरी चुनौतियों को 'आइये बनें नए बसंत
के अग्रदूत' शीर्षक लेख में विस्तार से चिन्हित किया गया है. यह सिर्फ अपने समय का
दस्तावेज़ नहीं, बल्कि निरंतरता में प्रवाहित एक सतत आह्वान है, जिससे हर क्रांतिकारी
संस्कृतिकर्मी को राह मिलती है.
'भोजपुर का क्रांतिकारी किसान आंदोलन: एक झलक' शीर्षक लेख
एक तरह से इस पूरे संग्रह में रामजी राय जिन विचारों और अवधारणाओं को सामने लाते
और विक्सित करते हैं, उनकी क्रियागत आधार-भूमि
की ही झलक है. क्रांतिकारी वाम आंदोलन ने हिंदी-उर्दू क्षेत्र में जिस प्रयोगशाला
में अपने तमाम वैचारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्त्रों को मांजा और सान चढाया है, वह प्रयोगशाला है भोजपुर का आन्दोलन, जिन अंतर्दृष्टियों से वह
समृद्ध हुआ है, उसके शिक्षण- प्रशिक्षण की भूमि है 'भोजपुर'. वही भोजपुर जहां
नागार्जुन के शब्दों में 'भगत सिंह ने
नया-नया अवतार लिया है." इस संग्रह में उस माटी की गंध और उसके महान शहीदों
की स्मृति समाई हुई है. भारतीय इतिहास और भवितव्य से उस क्रांतिकारी भूमि के
साक्षात्कार की रश्मि-रेखाएं इस पुस्तक का आलोक हैं. यह भोजपुर गोरख पाण्डेय,
माहेश्वर और रामजी राय, हमारे क्रांतिकारी आंदोलन के इन अगुवाओं की रचनाओं और
सांस्कृतिक-राजनीतिक क्रियाशीलता की सदा जीवित प्रेरणा है. कामरेड विनोद मिश्र को इस पुस्तक का समर्पण भी इसी
जीवित प्रेरणा का उद्घोष है.