Friday, 13 December 2013

प्रदीप सिंह की कविताएं...


(प्रदीप सिंह आइसा और जसम के सक्रिय सहयोगी रहे हैं। पत्रिकाओं में उनकी जो भी कविताएं छपी हैं, उनकी चर्चा देर तक हुई है।  फिलहाल फ़तेहपुर में एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक हैं।)



                                आदिवासी

उन्हें नहीं दी गई
बिजली, पानी, सड़क
नहीं दिया गया कभी
पेट भर भोजन
वे चुप रहे
जब तक वे चुप रहे
तब तक आदिवासी थे।
छीन ली गई उनसे
उनकी जमीन, उनका जंगल, उनकी इज्जत
और जब वे बोले उसके खिलाफ
तो नक्सलवादी हो गए।

सरकार के अत्याचार सहना
आदिवासी होना है
और उसके खिलाफ खड़े होना
नक्सलवादी।

ताबूत

हम बनाते हैं सरकार
सरकारें हमारे लिए
बनाती हैं ताबूत
उसमें ठोंकती हैं कील
आहिस्ता-आहिस्ता
इस तरह ज़िंदा ही
दफन कर दिए जाते हैं हम
अपनी ही बनाई सरकार द्वारा
घुट-घुट कर मरने के लिए।


Thursday, 21 November 2013

स्फुट : आलोक कुमार श्रीवास्तव

(यहां आलोक कुमार श्रीवास्तव द्वारा कुछ स्फुट विचार प्रस्तुत हैं. ये विचार अकादमिक ढंग से किए जाने वाले चिंतन की उपज न हो कर उस चिंता की उपज हैं जो हर दिन सवालों के रूप में आम आदमी के सामने उपस्थित होते रहते हैं. जाहिर है ये सवाल आदमी के ‘सामने’ भी होते हैं और आदमी के ‘भीतर’ भी. आलोक कुमार श्रीवास्तव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और लंबे समय तक आइसा में काम भी किया है. वैचारिक पक्षधरता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्व की खास पहचान है. आपके द्वारा किए गए अनुवाद बेहद पठनीय होते हैं. फिलहाल आप भारतीय रिजर्व बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं.)



  
एक

20 अक्टूबर 2013 को दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव में स्वतंत्र फिल्मकार नकुल साहनी द्वारा कुछ वीडियो क्लिपिंग्स प्रदर्शित की गयीं। मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स नाम से बनी इन वीडियो क्लिपिंग्स (न्यूज़ वीडियो) में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के लोनी कस्बे के एक मुस्लिम राहत शिविर में मौजूद लोगों के साथ बातचीत को दिखाया गया है। आज़मगढ़ के नेहरू हाल में मौजूद सैकड़ों लोगों ने इन्हें देखा। बातचीत को देखना और सुनना एक पीड़ादायी अनुभव रहा, लेकिन ताज्जुब की बात ये रही कि इस प्रदर्शन के बाद आयोजित खुली चर्चा के दौरान एक दर्शक ने नकुल साहनी पर एकतरफा सच दिखाने का आरोप लगाया। बेचारे नकुल साहनी क्या कहते, हम सब ऐसे आरोपों के सामने बेबस ही रह जाते हैं।


दो

मेरी चार साल की बेटी परी बड़ी गम्भीरता के साथ सोचते-सोचते कहती है - पापा, मेरी समझ में नहीं आता कि ये लड़के इतनी शैतानी क्यों करते हैं। मैं तो बिल्कुल शैतानी नहीं करती। और भी लड़कियों के नाम गिनाती है साची, तूली, भव्या, ध्याना, दीप्ति, सानवी ..... कोई भी लड़की इतना नहीं चिल्लाती जितना अभिजीत चिल्लाता है। अभिजीत मेरे और दीप्ति के खिलौने हमेशा छीन क्यों लेता है, किसी की बात क्यों नहीं सुनता? उसके मम्मी-पापा भी उसको क्यों नहीं समझाते? कार्तिक भैया इतना जिद्दी क्यों है? मैं अंधेरे में अवि भैया, अवि भैया चिल्लाती रही लेकिन अवि भैया क्यों नहीं बोला? कवि ने मुझे धक्का मारकर क्यों गिरा दिया? परी के ये सवाल भी मुझे बेबस ही कर देते हैं।


तीन

देश का युवा परिवर्तन की चाह करने लगा है। अब उसके पास परिवर्तन की चाह करने के बहुत ज़बरदस्त कारण हैं। उसके भीतर बेचैनी है, कशमकश है, मगर उसे फैसले पर पहुँचने की जल्दी भी है। जवानी में धैर्य की कमी अक्सर तकलीफ का सबब बनती है। कहा जा रहा है कि देश को कड़े फैसले लेने मे सक्षम प्रधानमंत्री चाहिए। जाहिर है इस समय भारत में एक ही आदमी प्रधानमंत्री है - नरेंद्र मोदी। एक नौजवान ने ऐसे ही मुझसे कहा - सर, नरेंद्र मोदी का मतलब सिर्फ गोधरा ही नहीं होता। आप उसके काम देखिए... खूब देखे मैंने उसके काम। गोधरा के बाद मैंने मुजफ्फरनगर भी देख लिया। विकास के झूठे आंकड़ों की पोल भी खूब खुली। गुलेल.कॉम की जासूसी वाली स्टोरी भी इसी मौके पर सामने आ चुकी है। इस पर भी मेरा नौजवान दोस्त मुझसे सवाल करता है - सर, मुझे उस एक व्यक्ति का नाम बताइये, जिसे इस देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए। मैं फिर बेबस हूँ। लाजवाब हूँ।    


चार

इस मनहूस साल में बहुत कुछ दुखद घटा हिन्दी अदब की दुनिया में। कंवल भारती को सत्ता तंत्र द्वारा परेशान किए जाने के बाद उन्होंने बचाव के लिए कांग्रेस की शरण ले ली। दलित विमर्श के लिए ये बड़े नुकसान वाली बात थी। इससे भी बहुत बड़ा नुकसान अभी-अभी हुआ पूरे हिन्दी साहित्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि की मृत्यु के रूप में। एक दलित साथी ने अगले दिन एक सवाल किया - वाल्मीकि जी की मृत्यु का समाचार अखबारों में क्यों नहीं आया सर? .... यह भी ऐसा ही सवाल है जिसका जवाब बनाना आसान नहीं है।


पाँच

सारे देश की भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में सचिन को भारत रत्न देने पर इतना हल्ला क्यों मचा रहे हैं कुछ लोग? ......यह एक बेहूदा सवाल है। अब तक मैं बहुत चुप रह चुका। अब हो सकता है बोल ही पड़ूँ।  


तो ये पाँच चीजें हैं - उग्र हिन्दू राष्ट्र के लिए अल्पसंख्यक (मुस्लिम) विरोध, पुरुष सत्ता का वर्चस्व यानी लैंगिक भेदभाव, सांप्रदायिक राजनीति, दलित की उपेक्षा और तिरस्कार यानी (मीडिया की) सवर्ण मानसिकता; और आक्रामक पूंजीवाद। बड़े संघर्ष की जरूरत है इन पांचों चीजों को खत्म करने के लिए। हमें तैयार रहना है। हर मोर्चे पर लड़ना है धैर्य के साथ। जवानी के जोश में होश खोए बगैर। खासकर स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और दलितों को। और पूंजीवाद के खिलाफ तो पूरी दुनियाँ को खड़े होना है। भारत के मध्यवर्ग के सामने फिलहाल सबसे बड़ा काम यही है। हम कब तक चुप और निरुत्तर रहेंगे अपनी बेटियों, अपने मुस्लिम और दलित मित्रों के सवालों के सामने ? और हम कब तक देश को कॉर्पोरेट पूंजी के हाथ की कठपुतली बने रहने देंगे?  


Thursday, 7 November 2013

याद किए गए साहित्यकार परमानन्द श्रीवास्तव...

इलाहबाद, 06/11/2013.
कवि, कथाकार और आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में जन संस्कृति मंच, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में स्मृति सभा का आयोजन किया गया. इस आयोजन में शहर के अनेक बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार परमानन्द जी के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए उपस्थित थे.

कार्यक्रम में उपस्थित कवि विवेक निराला ने कहा कि 'परमानन्द जी का लेखन नई पीढ़ी के लेखकों को आश्वस्ति प्रदान करता था...जिस समय कविता पर सर्वाधिक हमले हो रहे थे उस समय परमानन्द जी ने कविता के पक्ष में अपनी लेखनी उठाई.' सामाजिक कार्यकर्त्ता सीमा आजाद ने परमानन्द जी के बारे में अपने पारिवारिक अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि 'अंत तक उनकी चिंता के केंद्र में  साहित्य ही रहा...मुझे मार्क्सवाद के प्रति आकर्षित करने का श्रेय परमानन्द जी को है.'

जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण ने उनके साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान पर प्रकाश डाला. प्रणय कृष्ण ने कहा कि 'परमानन्द जी ने प्रगतिशील मूल्यों को बनाये रखते हुए  काव्यभाषा  पर विचार किया. उन्होंने न तो काव्यभाषा को धकेला और न उसे सर्वोपरि निकष बनाया. कबीर-दादू-ग़ालिब से लेकर अब तक के कवियों को समकालीन मान कर पढ़ना परमानंद जी की आलोचना पद्धति की उल्लेखनीय विशेषता थी. वे गोरखपुर में सामंती मूल्यों के बरक्स प्रगतिशील मूल्यों के प्रति समर्पित थे.'

 रामजी राय ने कहा कि 'परमानन्द जी से लोगों का एक बहस का रिश्ता था. उनके साथ एक सार्थक बहस की गुंजाईश हमेशा बनी रहती थी. वरिष्ठ आलोचक प्रो.राजेन्द्र कुमार ने परमानन्द जी को एक बेख़ौफ़ शख्सियत बताया. जो नए से नए लेखकों पर भी अपनी नजर रखता था.

इतिहासकार लालबहादुर वर्मा ने उन्हें गहरी जिजीविषा का धनी कहा. तो कथाकार दूधनाथ सिंह ने उन्हें सदैव लिखते-पढ़ते रहने वाला सजग लेखक बताया. दूधनाथ सिंह ने कहा कि 'परमानन्द जी हिंदी के क्षेत्र के अजातशत्रु थे. सुसंस्कृति उनके व्यक्तित्व का खास पहलू थी.' कार्यक्रम की अध्यक्षता कामरेड जिया उल हक़ ने की. प्रो. संतोष भदौरिया ने कार्यक्रम का संचालन किया . स्मृति सभा में सूर्य नारायण सिंह, उर्मिला जैन, उन्नयन के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र, अनीता गोपेश आदि ने अपने भावपूर्ण विचार रखे.

कार्यक्रम में कवि हरीशचन्द पाण्डेय, कवि रतिनाथ योगेश्वर, विश्वविजय, वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा, कवी श्रीरंग, कहानीकार अशरफ अलीबेग, हरिश्चंद द्विवेदी, कवि नन्दल हितैषी, अंशु मालवीय, सुधीर सिंह, पद्मा जी, उत्पला, के.के. पाण्डेय, शेष नारायण शेष, आइसा के छात्र नेता सुनील मौर्य, रघुनन्दन और रामायन राम, शशिकांत पाण्डेय आदि उपस्थित रहे.    

Thursday, 31 October 2013

श्री राजेन्द्र यादव को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


श्री राजेन्द्र यादव ( 28 अगस्त 1929- 28 अक्तूबर 2013) अचानक चले गए. उनका जाना असमय इसलिए है कि अपने समवयस्कों के बीच जीवितों में वे ही थे जो बाद की साहित्यिक पीढ़ियों के बीच भी सबसे जीवंत और विवादास्पद बने रहे. अपने आधा दर्जन उपन्यास और इतने ही कहानी संग्रह, एक कविता-संग्रह और ढेरों आलोचनात्मक लेखों से ही वे साहित्य की दुनिया में एक कद्दावर हैसियत रखते थे, लेकिन और बहुत कुछ था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था.

हिन्दुस्तानी समाज में इस उम्र में दुनिया छोड़ देना बहुत हैरत की बात नहीं, लेकिन हैरत और दुःख इसलिए है कि वे बिलकुल कल तक ज़िंदगी की हरकतों के बीच बने रहे, जमे रहे, अड़े रहे. कोई उनसे सहमत हो या असहमत, उनकी उपस्थिति और उनके साथ संवाद से मुंह नहीं मोड़ सकता था. वे यारों के यार थे, लेकिन जो उनसे मुखालिफ विचार रखते थे, उनके लिए भी वे एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी थे जिसके बगैर उनसे प्रतिद्वंद्विता रखने वाले साहित्यिक आचार और विचार भी खुद को ‘कुछ कम’ सक्रिय महसूस करते थे.

राजेन्द्र यादव ‘नयी कहानी’ के स्तंभों में तो थे ही, ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक के नए अवतार में उन्होंने अपने ‘सम्पादकीयों’ के ज़रिए 1980 के दशक के मध्य से जिन बहसों को छेड़ा वे साहित्य और समकालीन समाज के रिश्ते की बेहद महत्वपूर्ण बहसें थीं. बहस चाहे 1857 के मूल्यांकन के बारे में हो, ‘पुरुष की निगाह में स्त्री’ के बारे में हो या फिर हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बारे में, वे हरदम ही एक पक्ष थे जिसके बरअक्स अन्य लोगों को बात करना ज़रूरी लगता था. राजेन्द्र यादव बहस उकसाते थे, प्रतिक्रियाएं जगाते थे. इस उद्देश्य के लिए चाहे जितनी सनसनी की जरूरत हो, उन्हें इससे गुरेज़ न था.

राजेन्द्र यादव का आग्रह था कि अस्मितामूलक साहित्य को ही नयी प्रगतिशीलता माना जाए. इसके लिए उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका को एक मुखर मंच बनाया. लेकिन प्रतिद्वंद्वी विचारों के लिए जगह की कोई कमी पत्रिका में भरसक नहीं थी. उनके जरिए पिछले ढाई दशकों में ‘हंस’ ने तमाम युवा स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़े समुदाय की प्रतिभाओं से हिन्दी जगत को परिचित कराया. इन वर्षों में प्रगतिशील चेतना की तमाम कहानियां ‘हंस’ के ज़रिए प्रकाश में आयीं. वे मोटे तौर पर एक उदारवादी, सेक्युलर और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी की भूमिका जीवनपर्यंत निभाते रहे. ‘कुफ्र’ कहने की आदत उनकी अदा थी जो लोगों को रुचती थी, सहमति या असहमति की बात दीगर है.        
उनके कथा- लेखन की प्रयोगधर्मिता निश्चय ही उल्लेखनीय है, लेकिन पिछले तीन दशकों से ‘मैं’ शैली में बेबाक ढंग से, अंतर्विरोधग्रस्त होने, गलत या सही समझे जाने के खतरों को उठाते हुए बोलना और लिखना उन्हें एक निराली साहित्यिक शख्सियत प्रदान करता है जिसकी कमी लम्बे समय तक हिन्दी की साहित्यिक दुनिया को खलती रहेगी.

उन्होंने लेखन, सम्पादन के अलावा जीविका के दूसरे साधन नहीं तलाशे. ये हमारी आज की दुनिया में बेहद मुश्किल चुनाव है. जन संस्कृति मंच हिन्दी की इस निराली शख्सियत को अपनी श्रद्धांजलि पेश करता है .

                                                                           (जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)

Friday, 23 August 2013

जन संस्कृति मंच : आजाद हिन्दुस्तान के शहीदों में गिने जाएंगे डा. दाभोलकर


नई दिल्ली : 21 अगस्त 2013
20  अगस्त, मंगलवार के दिन पुणे में मार्निंग वाक पर निकले मशहूर अंधविश्वास-विरोधी, तर्कनिष्ठा और विवेकवादी आन्दोलनकर्ता डा. नरेन्द्र दाभोलकर की अज्ञात अपराधियों ने नृशंस ह्त्या कर दी . डा. दाभोलकर लम्बे समय से समाज में अंध-आस्था की तिजारत और राजनीति करनेवालों के निशाने पर रहे। डा. दाभोलकर की जिस दिन ह्त्या हुई , उसी दिन वे पर्यावरण की दृष्टि से हानिरहित गणेश प्रतिमाओं के आगामी त्योहारों के समय प्रयोग के लिए प्रेसवार्ता करनेवाले थे. दाभोलकर लम्बे समय से महाराष्ट्र विधानसभा में अंधविश्वास और काला-जादू विरोधी विधेयक को पास करके क़ानून बनवाने के लिए प्रयासरत थे, जिसका भारी विरोध कई तरह के साम्प्रदायिक संगठन कर रहे थे, हालांकि शिवसेना और भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दल इस विधेयक के पक्ष में थे. उनकी ह्त्या के बाद अचानक जागी पुलिस हाल के दिनों में उन्हें 'सनातन प्रभात' और 'हिन्दू जन जागृति समिति' जैसे संगठनों  से मिल रही धमकियों के आरोपों की जांच कर रही है. उनकी ह्त्या काफी सुनियोजित थी क्योंकि हत्यारों को पता था कि पुणे में वे प्रायः सप्ताह के दो दिन यानी सोमवार और मंगलवार को ही रहते हैं .

   डा. दाभोलकर (65) सतारा जिले में एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो समाजवादी आन्दोलन से जुड़ा  हुआ था. पेशे से वे डाक्टर थे और लगभग 10 साल डाक्टरी पेशे में काम करने के बाद उन्होंने अपना जीवन सामाजिक चेतना निर्माण और परिवर्तन के लक्ष्य को समर्पित कर दिया. समाजवादी नेता बाबा अढाव के साथ 'एक गाँव, एक कुंआ' आन्दोलन में  उन्होंने 1983 से काम करना शुरू किया और 1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंध-श्रद्धा निर्मूलन समिति का निर्माण कियादाभोलकर तांत्रिकों, बाबाओं, चमत्कार से रोग दूर करने का दावा करनेवाले धोखेबाजों और तमाम पिछड़ी हुई धर्मानुमोदित प्रथाओं के खिलाफ आन्दोलन को स्कूलों, कालेजों और गाँव-गाँव तक ले गए.  पिछले 30 वर्षों से वे लगातार ऐसे तत्वों से जूझते तथा  तर्क और विवेकशीलता की चेतना निर्मित करते हुए सक्रिय  रहे. इस दरमियान उन्होंने 30 से अधिक किताबें लिखीं, मराठी साप्ताहिक 'साधना' का सम्पादन किया और सतारा नशा-मुक्ति केंद्र की स्थापना भी की . सन 2000 में उन्होंने अहमदनगर के शनि शिन्गनापुर मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के लिए  ज़बरदस्त आन्दोलन चलाया.  उन्होंने निर्मला देवी और नरेन्द्र महाराज जैसे बेहद ताकतवर धर्मगुरुओं को खुली चुनौती दी. इस साल  होली के ठीक पहले भयानक  सूखे का सामना कर रहे महाराष्ट्र में आसाराम बापू द्वारा हजारों लीटर पेयजल से होली खेले जाने  को डा. दाभोलकर ने चुनौती दी और अंततः सरकार को इस पर प्रतिबन्ध लगाना पडा.  
हमारे देश में पिछडापन और सामंती अवशेष तो अंधविश्वासों के लिए ज़िम्मेदार हैं ही, भ्रष्टाचार, सट्टे और दलाल पूंजी की मार्फ़त अमीर और ताकतवर बने मुट्ठी भर लोग अपनी चंचला पूंजी की हिफाजत की दुश्चिन्ता से घिर कर ढोंगियों और आपराधिक धर्मगुरुओं के संरक्षक बने हुए हैं . इनमें राजनेता, नौकरशाह और थैलीशाह बड़े पैमाने पर शामिल हैं जिनकी सहायता के बगैर अंधश्रद्धा का अरबों-खरबों का कारोबार एक दिन नहीं चल सकता. बौद्धिक- वर्ग का भी अच्छा- खासा हिस्सा केवल संस्कारतः  अंध-श्रद्धा की  चपेट में है, बल्कि कुछ लोगों ने तो इसको पालने-पोसने में निहित स्वार्थ तक विक्सित कर लिए हैं . दूसरी ओर, बड़े  पैमाने पर गरीबी और बेरोज़गारी से बदहाल देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा मानसिक राहत के लिए 'हारे को हरिनाम' की मनोदशा में ढोंगी धर्मगुरुओं, तांत्रिकों और चमत्कार से इलाज करनेवालों के चंगुल में फंसता रहता है. मीडिया बड़े पैमाने पर अंधविश्वास हर दिन परोसता है. जिस देश में आज भी अनेक स्थानों पर निर्दोष स्त्रियाँ डायन कह कर मार दी जाती हों, जहां नर-बलि तक के समाचार अखबारों  की सुर्खियाँ बनते हों, जहां मनोचिकित्सा अभी भी बड़े पैमाने पर ओझा-सोखा के हवाले हो, वहां डा. दाभोलकर का काम कितना सुस्साध्य रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. सबसे बढकर अंध-आस्था का उपयोग राजनीति और तिजारत के लिए, जनता की चेतना को दिग्भ्रमित करने के लिए ताकि वह अपनी वंचना के कारणों को जान सके ,अपने वास्तविक हक़-हुकूक  के लिए लड़ सके, किया जाता है. ऐसे में डा. दाभोलकर पूंजी की सत्ता की आँखों में भी किरकिरी बने हुए थे. उन पर हमले पहले भी होते रहे, धमकियां पहले भी मिलती रहीं, उनकी प्रेस-वार्ताओं में  पहले भी उपद्रव किया जाता रहा, लेकिन विनम्रता के साथ  सादगी भरा  जीवन जीते हुए वे अपने काम में अडिग बने रहे.

   सन 2011 में केरल युक्ति संघम के अध्यक्ष यू. कलानाथन पर टी वी शो के दौरान तब हमला किया गया जब वे तिरुवअनंतपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर की अकूत धन संपदा के सार्थक उपयोग पर बहस कर रहे थे. इसी तरह सन 2012 में मुंबई के एक चर्च में जीजस की प्रतिमा की आँखों से आंसू निकलने को चमत्कार कहे जाने के खिलाफ जब विवेकवादी चिन्तक सनल एडामरुकु  ने वैज्ञानिक कारण प्रस्तुत किए तो उन पर धार्मिक विद्वेष फैलाने का मुकदमा ठोंक दिया गया और अब तो डा. दाभोलकर की ह्त्या ही कर दी गई है. जिन दक्षिणपंथी ताकतों ने यह घृणित कारनामा अंजाम दिया है, वे यह भूलें कि भारत में विवेकवाद और तर्क-प्रमाणवाद की भी एक परम्परा है जो हजारों साल पुरानी  है. लोकायत की हजारों साल पुरानी  परम्परा को बदनाम और विरूप करने, उसके ग्रंथों को नष्ट कर  डालने के बाद भी वह लोक- मनीषा में नए-नए ढंग से आकार ग्रहण करती रही. डा. नरेन्द्र दाभोलकर इसी महान परम्परा की अद्यतन कड़ी हैं. वे तर्क-प्रमाणवाद, विवेकवाद के जुझारू योद्धा के बतौर आज़ाद हिन्दुस्तान में मानसिक गुलामी के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए.
 जन संस्कृति मंच उनकी प्रेरणादाई स्मृति को तहे-दिल से सलाम करता है.  
( सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सह-सचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी )