Friday, 31 May 2013

ज़माने का चेहरा : एक सक्रिय कार्यकर्ता की नज़र में


(अभी हाल में ही रामजी राय की पुस्तक 'ज़माने का चेहरा' जन संस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल(सांस) द्वारा प्रकाशित हुई है. रामजी राय की इस पुस्तक में उन महत्त्वपूर्ण साहित्यिक-राजनीतिक बहसों को मार्क्सवादी नजरिये देखा-परखा गया है. जिन पर मार्क्सवाद विरोधी अवसरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा हमेशा धुंधलका बनाये रखने की कोशिश की जाती रही. इस पुस्तक की भूमिका के लेखक प्रणय कृष्ण है. इस भूमिका पढ़ने से ही पुस्तक का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है... राजन विरूप)





         कामरेड रामजी राय द्वारा अलग-अलग समयों पर लिखे  साहित्यिक, सांस्कृतिक, समाज, राजनीति   और इतिहास संबंधी चुने हुए निबन्धों का यह संकलन पाठकों को समर्पित है. छात्र जीवन से ही भाकपा (माले) के पूरा-वक्ती कार्यकर्ता के बतौर काम करते हुए उन्होंने यह दिखलाया है कि एक ओर साहित्य और संस्कृति , तो दूसरी ओर क्रांतिकारी राजनीति में सक्रियता एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों की द्वन्द्वात्मक एकता से निष्पन्न दृष्टि ने इन निबन्धों में एक विलक्षण ऊर्जा भर दी है जो 'प्रतिरोध की संस्कृति' और क्रांतिकारी मार्क्सवादी राजनीति के कार्यकर्ताओं के लिए समान रूप से विश्वसनीय और प्रेरक वैचारिक निधि है.  
    
सहानुभूतिकर्ता नहीं, सक्रिय कार्यकर्ता की नज़र

    रामजी राय अपने राजनीतिक, वैचारिक अनुभव और साहित्य-दृष्टि से ही इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं  कि मुक्तिबोध के 'मूल्य-सत्य सहानुभुतिकर्ता बनने भर की नहीं अपनी क्रियागत परिणति के लिए सक्रिय कार्यकर्ता या कम से कम सक्रिय कार्यकर्ता-जैसा ही बनने की मांग करते हैं.' उनकी  यही दृष्टि  मुक्तिबोध और नागार्जुन के क्रांतिकारी संवेदनात्मक उद्देश्य की सम्पूर्णता में पहचान को संभव बनाती है, जिसे 'सामाजिक जनवाद' से प्राप्त दृष्टि समझने में नाकाम रही है. मुक्तिबोध का आत्म-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष और कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतरी वैचारिक संघर्ष और विश्व-इतिहास के गतिमान संघर्षों  से पूरे तरह नत्थी है, इस तथ्य को गहराई से समझे बगैर उनके कथ्य, शिल्प, प्रतीक, बिम्ब -किसी चीज़ की व्याख्या एकांगी ही हो सकती है, जैसी उनके तमाम व्याख्याकारों ने की भी है.  'मुक्तिबोध : नक्सलबाड़ी का अवांगार्द कवि' शीर्षक लेख मुक्तिबोध को समझने के ज़रूरी सूत्र विकसित  करता है और तमाम वैचारिक और सौंदर्यशास्त्रीय जालों को साफ़ करते हुए २० वीं सदी के इस महान कवि के वास्तविक क्रांतिकारी आशयों को स्पष्ट करता है. नागार्जुन की अग्निधर्मी चेतना पर 'कुछ अनजाने और अधिकतर जान-बूझ कर' राख गिराने, उनकी कविता के क्रांतिकारी पहलू को भुलाने, मिटाने, विकृत करने और 'जनकवि होने के नाते किसी भी जनांदोलन पर कविता लिख देने वाले कवि' के रूप में उन्हें 'अभूतपूर्व सामान्यताओं में डुबो देने' के खूब प्रयास हुए. 'नागार्जुन नक्सल मिजाज़ के रचनाकार थे' शीर्षक लेख इन्हीं प्रयासों के खिलाफ उनकी 'अग्निधर्मी चेतना की समग्रता और जीवन-स्वप्न की पुनःस्थापना' के दायित्व-बोध से लिखा गया है. यह लेख नागार्जुन के बारे में सामाजिक जनवादी समझ और सोच, फासिस्टों द्वारा उनकी भारत-चीन युद्ध के सन्दर्भ में लिखी कविताओं को आधार बनाकर उनके विरुपीकरण तथा उत्तर-वादी सैद्धांतिकी और अस्मिता-विमर्श की चौहद्दी  में घटाकर  उनके साहित्य के पाठ का सुदीर्घ प्रत्याख्यान प्रस्तुत करते हुए इस दायित्व-बोध को निभाता है. मुक्तिबोध और नागार्जुन भारत में जनक्रांति का तसव्वुर रचते हैं, किसी शांतिपूर्ण संक्रमण के भुलावे में नहीं पड़ते. आज़ाद भारत के घनघोर अंधेरों का यथार्थ सर्वेक्षण उनके काव्य को यह भूमि प्रदान करता है जहां नए भारत का 'भविष्य-स्वप्न' जनक्रांति से जन्मता और आकार लेता है.
      मुक्तिबोध रामजी राय के गाढे के साथी हैं. जीवन-जगत के हर प्रसंग में मुक्तिबोध की रचनाओं से आती रौशनी उन्हें अपने आगोश में ले लेती है. इस संग्रह का शीर्षक और इसका समर्पण, दोनों इसकी तस्दीक करते हैं. मुक्तिबोध संग्रह के लगभग हर लेख में कुछ कहते-सुनते दिखाई देंगे. संग्रह में एक लेख का शीर्षक है 'अमेरिका का खाडी युद्ध और मुक्तिबोध'. मुक्तिबोध की १९५० से १९५७ के बीच लिखी २६-२७ पृष्ठों की अधूरी और अचर्चित कविता 'ज़माने का चेहरा' का उत्तरार्द्ध अमेरिका द्वारा खाडी क्षेत्र को साम्राज्यवादी रणक्षेत्र में बदल देने का चित्र उपस्थित करता है. ईराक पर अमेरिकी हमले के समय रामजी राय इस कविता को बार-बार पढते और हैरान होते हैं. क्या कारण है कि मुक्तिबोध की कविताओं की सर्चलाईट भविष्य में भी इतनी  दूर तक रौशनी फेंक सकती है जिसमें जमाने का चेहरा इतना साफ़ दिख जाता है? रामजी राय इसे यों समझते हैं, " मुक्तिबोध का काव्य विवेक और उस की अग्नि मूलतः द्वितीय विश्व युद्ध और उस के बाद की विश्व राजनीतिक प्रक्रिया से गहरी मुठभेड़ की उपज है, जो उनके उपनिवेशवाद-विरोधी  भारतीय जनता के मुक्तिसंघर्षों से उपजे काव्य विवेक का उच्चतर विकास है." अगर उनकी कविता अपने लिखे जाने के आधी शताब्दी बाद की घटना- अमेरिका का खाडी-युद्ध और अरब वीरों का प्रतिरोध इतनी निश्चयात्मकता के साथ दर्ज करती है, तो उस काव्य-विवेक की गहराई को किस तरह समझा जाए. रामजी राय लिखते हैं, "महज कुछ घटनाओं के आधार पर निर्मित अनुमान के सहारे इतनी निश्चयात्मकता के साथ नहीं लिखा  जा सकता. ऐसा  विश्व सभ्यता के संवेदनशील अनुशीलन और विभिन्न देशों की राजनीतिक, कूटनीतिक गतिविधियों  व हलचलों पर गहरी वैज्ञानिक नजर रख्नने  के जरिए ही संभव हो सकता है. इस निश्चयात्मकता के स्रोत हमें मुक्तिबोध की विश्व राजनीति पर लिखी उनकी टिप्पणियों में मिलते हैं, जिन्हें उन्होंने समय -समय पर लिखा.  विश्व राजनीति पर लिखी  गई टिप्पणियों का अस्सी प्रतिशत नई अमरीकी रणनीति, उस के मंसूबे और उस के केंद्र में अरब राष्ट्र को लेकर ही है. इन टिप्पणियों की भाषा शीत-युद्ध की कूट भाषा को भेदती है और वास्तविकता को सतह पर ला खड़ा करती है."  रामजी राय का मुक्तिबोध से रिश्ता कुछ वैसा ही है, जैसा मुक्तिबोध का उस 'बुज़ुर्ग उस्ताद'(कबीर) से है.   
  
गरीबों की होती है एक जात

   नागार्जुन भी लेखक के लिए एक ऐसे कवि हैं, जिन्हें वह अनेकानेक प्रसंगों में याद रखता है. भोजपुर के  क्रांतिकारी किसान संघर्ष का ज़िक्र जहां जिस लेख में भी आया  हो, वहाँ नागार्जुन मिलेंगे 'हरिजन गाथा' और 'भोजपुर' शीर्षक कविताओं के साथ. अकारण नहीं कि भोजपुर किसान संघर्ष के महान नायकों में से एक तथा हमारे समय में भारतीय उप-महाद्वीप के कम्युनिस्ट आंदोलन के सर्वाधिक मौलिक व सृजनात्मक क्रांतिकारी विनोद मिश्र तथा नागार्जुन की ऐतिहासिक मुलाक़ात को वह यों दर्ज करता है, " अगर उस क्षण को कैमरे में उतार लिया गया होता, तो वह किसी भी फिल्म से बड़ी फिल्म होती. मुझे वह क्षण रोमांचित करता है, जब डेढ़ मिनट तक वे एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर खडे थे, चुपचाप . फिर  दोनों एक दूसरे से आग्रह करते रहे कि पहले आप बैठिए , पहले आप.  विनोद मिश्र के बैठते-बैठते नागार्जुन ने कहा कि मैं निराश नहीं हुआ हूं, कामरेड. अखबार वाले मुझसे पूछते हैं कि क्या समाजवाद का अंत हो गया, मैं कहता हूं कि जब तक मजदूर के तन पर फटी हुई गंजी रहेगी, तब तक समाजवाद का अंत नहीं होगा'." यह है इतिहास के अंत, दर्शन के अंत, कविता के अंत की घोषणाओं पर उस कवि का जवाब , खुद जिसके पार्थिव जीवन की सांध्य-बेला है. यह है वह क्रांतिकारी आशावाद जो विपरीततम परिस्थितियों में भी उत्पीडित जनता के मुक्ति-स्वप्न की दुर्घर्ष अपराजेयता से  प्रतिबद्ध है.  'नागार्जुन का जीवन-स्वप्न' शीर्षक लेख समय के उस बिंदु पर लिखा गया है, जहां सोवियत संघ के बिखर जाने से निराशा का सर्वतोन्मुखी प्रचार है, जहां सामाजिक वर्गों की मुक्ति को शासकीय 'अस्मितावाद' की चौहद्दी में समेट लिए जाने के प्रयास ज़ोरों पर हैं, जहां उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण निर्विकल्प बताए जा रहे हैं.  रामजी राय इस माहौल में फिर नागार्जुन के पास जाते हैं. बताते है कि 'हरी दूब' का रूपक महज नागार्जुन के अपने व्यक्तित्व का नहीं, सिर्फ जिजीविषा का नहीं, बल्कि 'जनसाधारण' का है जो ' कुचले जाने, चरे जाने, शीत-ताप सहते हुए भी जीने और हरे-भरे रहने के यथार्थ और कामना' का रूपक है. जनसाधारण का ऐसा रूपक रचनेवाला कवि ही १९९२ में लिखी कविता में सोवियत विघटन के ज़िम्मेदार गद्दार येल्तसिन को 'साले, हरामी' तक कहता है. राम जी राय सर्वत्र निराशा देखने वालों से सवाल करते हैं, " इतना क्रोध किसी ने देखा  है? क्या यह निराशा  से पैदा हुआ क्रोध है?" जीवन की सांध्य-बेला में नागार्जुन 'अपने खेत में'(१९९६) में है, 'समाजवाद के सपनों' की खेती करते हुए, मुक्त बाज़ार के दिनों में 'बाजारू बीजों की निर्मम' छंटाई करते हुए. आज सबके सामने साफ़ है,(जब नागार्जुन नहीं हैं) कि पिछले दो दशकों में भारत के लाखों किसानों की आत्महत्या,अन्य बातों के अलावा (बी.टी. काटन सरीखे)इन्हीं बाजारू बीजों की निर्मम छंटाई न होने देने का परिणाम है. रामजी राय नागार्जुन की भाषा की धोखादेह सादगी के भीतर समेटे हुए हुए तूफ़ान की ओर इशारा करते हैं. उनकी समूची काव्य-यात्रा में दर्ज दलित, स्त्री और आदिवासी जीवन के मार्मिक संघर्षमय प्रसंगों, घटनाओं और कथाओं से एकबार  तेज़ी से  गुजरते हुए रामजी राय जनता के मुक्ति-संघर्ष के इस कवि के बुनियादी स्वप्न को फिर से सामने रखते हैं, जिसे शासकीय 'अस्मितावाद' की खंड-दृष्टियों में समोया/डुबोया नहीं जा सकता, जो स्वप्न प्रेमचंद का था, भगत सिंह का था, जिसकी ज़रूरी शर्त पूरी सादगी के साथ नागार्जुन की इस काव्य-पंक्ति में व्यक्त होती है-
" किसी की नहीं सुनो आलतू-फालतू एक भी बात
गरीबों की होती है एक जात."

     जिस तरह मुक्तिबोध नक्सलबाड़ी के अवांगार्द कवि है और नागार्जुन नक्सल मिजाज़ के कवि हैं,  उसी तरह, लेकिन उनसे अलग पाश नक्सलबाड़ी के अपने  कवि हैं. 'हमारे समय के कवि: पाश' शीर्षक लेख में   रामजी राय का कहना है , "नक्सलबाड़ी आंदोलन भले ही बंगाल में फूटा, उसे अपना कवि पंजाब में मिला. अवतार सिंह पाश के रूप में. संयोग देखिए कि पाश की पहली कविता भी 1967 में ही छपी जिस वर्ष नक्सलबाड़ी का आंदोलन  फूटा. फिर तो नक्सलबाड़ीऔर पाशदोनों जैसे अभिन्न हो गए..... पाश ने कला की समस्त ऊंचाइयों व बारीकियों के साथ नक्सलबाड़ी आंदोलन की मूल भावनाओं को कविता में उतारा.” नक्सलबाड़ी का आंदोलन उनकी कविता को पैदा करता है, उसमें आग की भरता है, रोमान भी. आंदोलन के धक्का खाने और टूटने-बिखरने को वे अपने स्नायुओं पर झेलते हैं , पूरी  ईमानदारी से.   पाश ने अपने कवि-जीवन में वह सब जिया जो जनता का एक  महान आंदोलन जीता है, उसके बिखराव और दमन ने उनमें भी भटकाव और भ्रम, निराशा और अंतर्मुखता की अवस्थाओं  को पैदा किया, आखिरकार  'वे नक्सलबाड़ी के कवि थे, उस के राजनीतिक नेता नही', लेकिन वे कहीं भी नक्सलबाड़ी को नकारते नहीं. आंदोलन की कमियों कमजोरियों पर प्रतिक्रिया  करते हैं, लेकिन ईमानदार आत्मसजगता के साथ जिसमें अपनी भी कमजोरियों की शिनाख्त और स्वीकार है. खालिस्तानियों की गोलियों  का शिकार होकर 'पाश' ने शहादत का वरण किया.  पाश की काव्य-यात्रा से गुजरकर लेखक का निष्कर्ष है, " मुक्तिबोध के बाद संभवतः पाश ही वह कवि हैं जिन्होंने अपने समय से सबसे गहरी और तगड़ी मुठभेड़ की है. यही वजह है कि उनकी कविता न केवल भाषा की सीमा लांघ गई बल्कि वे उसी भाषा के कवि बन गए जिस भाषा में उन्हें  पढ़ा जा रहा हो."

वर्तमान  में भविष्य का प्रतिनिधित्व : मुक्ति के  संघर्ष और  'विमर्श'

       कोई भी युगद्रष्टा रचनाकार 'वर्तमान में भविष्य का प्रतिनिधित्व' करने के चलते ही सिर्फ 'स्मृति-सन्दर्भ नहीं, बल्कि जीवित प्रसंग' बना रहता है. रामजी राय के लिए मुक्तिबोध, नागार्जुन और प्रेमचंद इसीलिए जीवित प्रसंग हैं. 'स्मृति सन्दर्भ नहीं, जीवित प्रसंग हैं प्रेमचंद' शीर्षक लेख इस नुक्ते का अर्थगर्भ विस्तार है. भारत की आज़ादी के संघर्ष के दो रास्ते थे. एक नौरोजी, रानाडे आदि आरंभिक राष्ट्रवादियों के मतों पर आधारित गाँधी जी के नेतृत्व वाला कांग्रेसी रास्ता जो न तो साम्राज्यवादी लूट को 'महान ब्रिटिश साम्राज्य' के चरित्र के अनुकूल मानता था और न ही इस लूट के देशी आधारों की शिनाख्त कर सकता था.  इसीलिए इस रास्ते में गोरों के अंतःकरण को जगाने पर इतना बल था. दूसरा रास्ता मार्क्स के मतों पर आधारित जनविद्रोह संगठित करने का क्रांतिकारी रास्ता था जिसे भगत सिंह ने भी अपनाया था. इस रास्ते के हामी गांधीवादी कार्यक्रमों में भाग भी लेते थे, तो जनविद्रोह को संगठित करने के उद्देश्य से ही और यही भूमिका साहित्य के धरातल पर प्रेमचंद की थी.  रामजी राय लिखते हैं- 'प्रेमचंद मूलतः इस दूसरी धारा के रचनाकार हैं." वे साम्राज्यवादी लूट के देशी आधार यानी ज़मीदार-महाजन की भी शिनाख्त करते हैं और साम्राज्यवाद-विरोध की वास्तविक देशी शक्ति यानी किसान-मजूर की भी. रामजी राय उनके साहित्य के अनेक प्रसंगों को रेखांकित करते हुए बताते हैं इस रास्ते का उन्होंने सचेत चुनाव किया था. 'आहुति' कहानी का नायक ' विश्वंभर अपनी छात्रा दोस्त रुक्मिणी को न तो शराब की दुकानों की पिकेटिंग में मिलता है, न विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करते समय. बल्कि वह उसे देहात जाने के लिए तैयार रेलवे स्टेशन पर मिलता है. अपनी परीक्षा, अपने कैरियर सबकी आहुति देकर.' जो लोग यह कहते हैं कि प्रेमचंद चूँकि  गाँव के थे, लिहाजा किसानों को ही सबसे बेहतर जानते थे, अतः स्वाभाविक है कि किसान ही उनके साहित्य के केन्द्र में होते, ऐसे लोगों से असहमति व्यक्त करते हुए राम जी राय जोर देकर कहते हैं कि प्रेमचंद ने किसानों का जीवन सचेत प्रयत्न से जाना था क्योंकि वे उस वर्ग या समुदाय के नहीं थे. यह असहमति सचेतनता के विरोध पर आधारित उस सिद्धांत से भी है जिसके अनुसार आप जिनके बीच रहते हैं, जिन्हें जानते हैं, उनके बारे में ही लिखिए. प्रेमचंद इसका जीता-जागता प्रत्याख्यान हैं.  रामजी राय प्रेमचंद के अधूरे उपन्यास 'मंगलसूत्र' में प्रेमचंद की बदलती रचना-प्रक्रिया के नए दौर को लक्षित करते हैं, " इस नई रचना प्रक्रिया का एक प्रमुख तत्व है मिलने जा रही स्वतंत्रता के भीतर निहित अंतरविरोध और इस आधार  पर बन रहे समाज की वास्तविकता. कभी-कभी यह सोचकर बड़ी तकलीफ होती है कि अधूरा ही सही लेकिन पूरी तौर पर मंगल का यह सूत्र बाद के हमारे रचनाकारों से आखिर छूटा क्यों कर!"   रामजी राय के निकट अधूरे उपन्यास 'मंगलसूत्र' में ही प्रेमचंद सर्वाधिक नए भारत की आगामी संभावित त्रासदी को साफ़ देख रहे हैं क्योंकि वे उस  स्वतंत्रता संग्राम को स्पष्ट देख रहे हैं जिसका रास्ता 'मि.जान की जगह सेठ गोविन्दी को' सत्ता में लानेवाला है, इसे 'आहुति' कहानी  की रुक्मिणी देख रही है, 'गबन' उपन्यास के देवीदीन खटिक देख रहे हैं.  सेठ गोविन्दी ही नहीं बल्कि 'गोदान' के राय साहब भी इस नयी सत्ता-व्यवस्था के भागीदार होंगे, इसे  पूरा 'गोदान' उपन्यास पूर्वाशित  कर रहा है. 'गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों' के आ जाने के खतरे को अपने तौर पर भगत सिंह पहचान रहे हैं , बिलकुल वैसे जैसे प्रेमचंद. राम जी राय लिखते हैं, " प्रेमचंद की परवर्ती रचना प्रक्रिया के भीतर साम्राज्यवाद के देशी  आधार के खिलाफ निशाना साधने की चेतना और  साफ रूप में विकसित होती दिखती है. मंगलसूत्रकी रचना प्रक्रिया इस का बेहतर उदाहरण है. लेकिन यहीं इस रचना प्रक्रिया में एक त्रासदी, एक पीडि़त विवेक चेतना भी समाई हुई दिखती है........ और आप देखिए कि जिस पूंजी को लेकर गोविंदी आए उस का मुनाफा एक ओर मि. जान जो गए  और दूसरी ओर जमींदार ज्ञानशंकरसे रिश्ते बनाए रखने पर टिका हुआ है. और जब गोविंदी इस चरित्र के साथ सत्ता पर काबिज हों तो मि. जान प्रत्यक्ष रूप से भारत से जाकर भी, अपरोक्ष रूप से भारत में मौजूद रहेंगे ही. तब फिर  भारत भी एक पिछड़ा भारत रहेगा. वह एक आधुनिक भारत नहीं बन पाएगा. यह अनिवार्य  है."
     यह लेख स्त्री-पृरुष के बीच लोकतांत्रिक  संबंधों की बाबत भी प्रेमचंद को 'जीवित प्रसंग' के रूप में उपलब्ध करता है. जिस समय  यह संग्रह छप रहा है, उस से ठीक पहले दिल्ली रेपकांड के खिलाफ स्त्रियों की बेख़ौफ़ आज़ादी के अभूतपूर्व आंदोलन का एक दौर गुजरा है, बिलकुल  अभी अभी. एक क़ानून भी इसके  दबाव में सेठ गोविन्दी और ज्ञानशंकरों के आज के वंशजों को पारित करना पड़ा है, बेशक संसद में बहस के दौरान अपनी सारी कुत्सा का मुजाहिरा करते हुए उन्होंने इसे संशोधित कर पारित किया.  यह प्रेमचंद की मालती है (गोदान) जिसे 'स्त्री-पुरुष बन कर रहने से मित्र बन कर रहना' अधिक सुखकर लगता है, 'रंगभूमि' की सुभागी को 'ऐसा पति अच्छा नहीं लगता जो औरत के चरित्र के पीछे डंडा लेकर पड़ा रहे'. 'आहुति' कहानी में रुक्मिणी और आनंद का प्रेम हो, या गोदान में धनिया और होरी या फिर मातादीन और सिलिया का संबंध , नए संबंधों की संघर्षधर्मी चेतना का विकास प्रेमचंद किसानों के भीतर से होता दिखाते हैं. आज के दौर में जहां 'खाप पंचायतें' पूरे परवान पर हों , जहां बलात्कारों का अंतहीन सिलसिला २१वीं सदी के भारत की मूल्य-व्यवस्था का एक प्रमुख संकेत-चिन्ह बनने पर आमादा हो, जहां सांप्रदायिक-फासिस्ट गुंडा -वाहिनियाँ प्रेमी-युगलों पर वैलेंटाइन डे के दिन हमलों को एक सालाना कर्मकांड बनाए हुए हैं, वहाँ प्रेमचंद का रचना संसार २१वीं सदी में भी राह दिखा रहा है कि भारत में नए आधुनिक तथा जनतांत्रिक मूल्य कहाँ से और किन संघर्षों की बदौलत निकलेंगे . रामजी राय के शब्द हैं, "  मैं प्रेमचंद को एक जीवित प्रसंग कह रहा हूं तो इसलिए भी कि आज भी भारत को नवउपनिवेशिक खतरे और पिछड़ेपन से मुक्त कर एक मुकम्मल आधुनिक  भारत बनने के स्रोत किसान ही हैं,दलित, कमजोर, गरीब,किसान. इसलिए नहीं कि किसान संख्या में ज्यादा हैं बल्कि इसलिए कि उनको आधुनिक बनाए बगैर भारत को आधुनिक नहीं बनाया
जा सकता. और आधुनिक बनने की सबसे ज्यादा सकर्मक सामर्थ्य  और ललक भी किसान में ही है." मातादीन के मुंह में हड्डी डालकर दलितों ने न केवल एक भ्रष्ट धर्म-मूल्य को तोड़-फोड दिया, न केवल दलित समाज में विक्सित हो रही आत्मसम्मान की संघर्ष भावना को अभिव्यक्त किया, बल्कि एक नए मानव -मूल्य, सडी-गली परम्पराओं के खिलाफ सच्ची घृणा पर आधारित एक नए संघर्षधर्मी मानंववाद की भी आधारशिला रखी.  प्रेमचंद के जीवित प्रसंग होने का यही पाठ  रामजी राय  हमारे सोचने-विचारने के लिए प्रस्तुत करते हैं.        
             रामजी राय स्त्री-मुक्ति के स्वप्न और संघर्ष के सवाल से इस संग्रह के तमाम लेखों में दो-चार होते हैं. प्रसंग चाहे मुक्तिबोध हों, नागार्जुन हों , प्रेमचंद हो या शरच्चंद्र के 'शेष प्रश्न'- वे हर कहीं स्त्री प्रश्न के   भारतीय और वैश्विक सन्दर्भ, भारतीय जनता के समग्र मुक्ति-स्वप्न से उसके संबंध का सतत अन्वेषण करते है और मूल्यवान निष्कर्षों तक पहुंचते हैं. 'समाज की महिला दृष्टि' शीर्षक लेख हमारे देश के इस दौर के एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल अर्थात सामाजिक अस्मिताओं पर आधारित दृष्टियों और मार्क्सवाद के साथ उनके संबंध पर केंद्रित है. लेखक की निगाह में, "मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के अंदर सापेक्षिक रूप से स्वतंत्र दलित दृष्टि की स्वीकृति भारत की ठोस स्थितियों में वर्ग को सही रूप में समझने, वर्ग संघर्ष को संचालित करने व व्यापक बनाने के लिए अपरिहार्य  है. कहने का मतलब यह है कि जरूरत वर्ग की कैटेगिरी को विस्तृत करने की नहीं; किसी देश-काल की ठोस ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ उपस्थित वर्ग को सही-सही और बेहतर रूप में समझने की है." समाज की महिला दृष्टि का विश्व-ऐतिहासिक और हिन्दुस्तानी परिप्रेक्ष्य तथा मार्क्सवाद के साथ उसका  संबंध  गहरी अंतर्दृष्टि के साथ इस लेख में रेखांकित हुआ है. लेखक का कहा है कि, "समाज में प्रचलित ऐसे सैकड़ों मुहावरे, लोकोक्तियां, लोकगीत, लोककथाएं और लोकआख्यान हैं जिनसे गुजरते हुए आप को साफ-साफ लगेगा कि पुरुष दृष्टि के समांतर समाज , इतिहास , परंपरा और संस्कृति को देखने की एक महिला दृष्टि भी है जो ज्यादा रचनात्मक, न्यायसंगत, यथार्थपरक, भौतिक और मार्क्सवादी नजरिए के नजदीक है और समाज परिवर्तन के संघर्ष में उसके निकट की सहयोगी." इसी संग्रह में 'इतिहास निर्माण और महिलाएं' शीर्षक लेख समाज की महिला दृष्टि के विश्व-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है.
    दलित प्रश्न पर गहराई से विचार करते हुए रामजी राय " ड़ा.अम्बेडकर: एक पुनर्मूल्यांकन' शीर्षक लेख में अनेक विचारणीय प्रश्न और निष्कर्ष  प्रस्तुत करते हैं.  शुरू में ही वे स्पष्ट कर देते हैं कि गाँधी-आम्बेडकर विवाद एक ऐतिहासिक अध्याय है, जीवित प्रसंग नहीं  क्योंकि गाँधी विचार की अगर कोई बची-खुची प्रासंगिकता है तो वह यथास्थिति को बनाए रखने के वैचारिक प्रतीक के रूप में ही व्यवहार की जा रही है, जबकि अम्बेडकर के विचार आज भी यथास्थिति से टकरा रहे हैं, क्योंकि जाति-व्यवस्था तोडने के उन्होंने जो  अस्त्र विक्सित किए वे सामंती व्यवस्था के मर्म पर ही चोट करते हैं, लिहाजा उनके पुनर्मूल्यांकन का सन्दर्भ मार्क्स के विचार ही बनेंगे आज के सन्दर्भ में. अगर अम्बेडकर और मार्क्स के विचारों में अंतर्विरोध है, तो उन्हें पहचाना जाना 'अंतर्संबंध' के लिए ज़रूरी है. इसी परिप्रेक्ष्य को आगे बढाते हुए वे लिखते हैं, " डा. अम्बेडकर..... जानते थे कि किसी सिस्टम का निर्माण एक सामाजिक, ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है. और उस के आर्थिक आधार भी होते हैं. बाबा साहब ने कहा कि जाति व्यवस्था श्रम विभाजन पर आधारित  नहीं है, वह श्रमिकों के विभाजन पर आधारित है. आप इस के अंतर्संबंधों पर सोचने की कोशिश करिए. जो  श्रमिकों को विभाजित करे वह एक ऐसी समाज व्यवस्था को बरकरार रखने का वैचारिक सांस्कृतिक आधार दे रहा होगा, जो समाज व्यवस्था जाति से भिन्न किन्हीं अन्य आधारों पर खड़ी हुई होगी. वह चिंतन जाति व्यवस्था के जरिए उस भिन्न आधार को सुरक्षित कर रहा होगा, जिस पर वह समाज व्यवस्था खड़ी हो. इस लिए ध्यान दीजिए तो आप को लगेगा कि बाबा साहब के सामने मूल प्रश्न दरअसल, यही था कि इस समाज की बुनियादी इकाई क्या है - जाति या वर्ग? यही रिडिल है,एक वैचारिक पहेली जो अम्बेडकर के यहां भी अनुत्तरित है." रामजी राय अपने विश्लेषण में यह दिखलाते हैं कि अम्बेडकर यह जानते हैं कि जाति-व्यवस्था सामंती भू-स्वामित्व की व्यवस्था पर चोट किये बगैर खत्म न होगी, इसीलिए वे इसके खात्में के लिए सिर्फ आरक्षण, अंतरजातीय-विवाह या धर्म-परिवर्तन जैसे उपायों पर आश्रित नहीं हैं, बल्कि भूमि के राष्ट्रीयकरण के विचार तक पहुंचते हैं. रामजी राय रेखांकित करते हैं कि वर्ग उसी तरह महज आर्थिक इकाई नहीं है , जैसे कि ड़ा. अम्बेडकर के यहाँ जाति महज सामाजिक इकाई नहीं है.  लिखते हैं, "वर्ग जिस समाज में उपस्थित होता है, जिस इतिहास में उपस्थित होता है, जिस सांस्कृतिक वातावरण में वह रहता है, उन सभी की विशिष्टताओं को रिफ्लेक्ट, प्रतिबिंबित करता है. भारत में वर्ग जाति को भी रिफ्लेक्ट करेगा,अगड़े-पिछड़े को भी और वह उन तमाम सांस्कृतिक विशिष्टताओं को भी रिफ्लेक्ट करेगा जिनके बीच में वह वर्ग अस्तित्वमान है, रह रहा है. इसलिए जाति की भाषा में वर्ग मौजूद रहेगा और वर्ग की भाषा में जाति की बात भी मौजूद रह सकती है. इस को समझने और अलगाने की जरूरत रहेगी."

साम्राज्यवाद-विरोध  और भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोध

     'बुश के बच्चों से बहस ज़रूरी है' शीर्षक लेख विलियम डैलरिम्पल की पुस्तक 'द लास्ट मुग़ल' के बहाने प्रथमतया ऐसे तमाम साम्राज्यवाद के पक्षधर विचारकों तथा उन वाम-उदारवादियों से गंभीर बहस है जो १८५७ के महान स्वाधीनता संग्राम के महत्त्व को उसकी १५०वीं वर्षगाँठ के अवसर पर न केवल नकार रहे थे, बल्कि उसकी विद्रूप व्याख्याएं पेश कर रहे थे. क्रांतिकारी वामपंथ  १८५७ के विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व और भारतीय क्रांति के लिए उसकी महान विरासत का वाहक है. ज़ाहिर है कि अमरीकी 'वार आन टेरर' तथा उत्तर पूँजीवादी 'सभ्यताओं के संघर्ष' की सैद्धांतिकी की वैचारिक छाँव  में पले-पुसे बुद्धिजीवियों द्वारा भारतीय जनता के उस महान संघर्ष के विकृतिकरण के खिलाफ हमारे सांस्कृतिक आंदोलन ने पुरजोर प्रत्याक्रमण  किया. साहित्यिक दुनिया के तमाम वाम-उदारवादियों ने उसे 'अस्मितावाद' के शासकीय संस्करण के चश्में से देखा हो , सिर्फ इतना ही नहीं हुआ -बल्कि वे जाने -अनजाने उस महान संघर्ष के विरुद्ध पुराने और नए साम्राज्यवाद के तमाम भोंडे तर्कों, भ्रामक प्रचार और दुर्व्याख्याओं के भी शिकार हुए. वास्तव में १८५७ को नकारना न केवल भारतीय आजादी की लड़ाई में दलितों और दूसरे पराधीन तबकों की भागीदारी और उसकी विरासत पर उनकी दावेदारी को नकारना है, बल्कि भारतीय क्रान्ति में किसान जनता की भूमिका को अतीत से ही खारिज करते हुए वर्तमान और भविष्य में भी संदिग्ध बताने का उपक्रम है.  ऐसे में बहस उनसे भी ज़रूरी थी और है . यह लेख क्रांतिकारी सांस्कृतिक आन्दोलन के इसी ज़रूरी कार्यभार यानी १८५७ की क्रांतिकारी विरासत की पुरजोर हिमायत और उसके महत्त्व की पुनर्स्थापना को मुकम्मल करता है.
     भारतीय रेनेसां एक ऐसा समुद्रमंथन था जिसमें अमृत भी निकला और हलाहल भी. रामजी राय मुक्तिबोध, नागार्जुन, १८५७ को लेकर चली बहसों , सभी जगह भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोधों और उनके संभावित समाजवादी हल को आवश्यक सन्दर्भ बनाते हैं, जिसके बगैर भारतीय क्रान्ति की समस्याओं पर भी ढंग से विचार नहीं हो सकता. नक्सलबाड़ी ने भारतीय रेनेसां के अंतर्विरोधों की शिनाख्त और उनके हल की ज़रूरत को भारतीय क्रान्ति की ज़रूरतों से जोड़ दिया. यही कारण है कि राम जी राय के लेखन का भी वह ज़रूरी सन्दर्भ -बिंदु है.  निर्मल वर्मा के संस्कृति-चिंतन को उन्होंने 'एक यूरो-इन्डियन का आत्म-बिम्ब' शीर्षक लेख में सही संज्ञा दी है. निर्मल वर्मा शायद हिंदी के अकेले बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने उत्तर-आधुनिक औजारों से भारत में 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विचारधारा और उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति 'साम्प्रदायिक फासीवाद' को सूक्ष्म, सम्मोहक शैली में वैधता प्रदान करने की कोशिश की है. निर्मल वर्मा ने एक बड़ा साभ्यातिक घेरा लेकर 'भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र' पुस्तक में उपरोक्त उद्देश्य से जिस वाग्जाल को रचा है, उसके रेशों को उधेड़ कर राम जी राय ने उसके वास्तविक प्रतिक्रियावादी अंतर्य को उद्घाटित किया है. रामजी राय इस पुस्तक में हर कहीं किसी भी विचार की उत्पत्ति के ऐतिहासिक मोड़ की पहचान करना नहीं भूलते. बीतती बीसवीं सदी के वर्षों में निर्मल के इस संस्कृति चिंतन के ऐतिहासिक उत्स की असंदिग्ध पहचान करते हुए वे लिखते हैं, "......इस किताब में भाषा-शैली  पुरानी और पुरोहितों जैसी  है फिर  भी कुछ चमकदार और तेवर भरी लगती है तो इस की वजह समाजवाद का संकट-ग्रस्त होना और हमारे रेनेसां  के रोमांटिक तर्कणावाद के विचारों से पैदा  संस्थानों का अपने व्यंग्य-चित्रों में बदल जाना है. नहीं तो स्वयं निर्मल वर्मा चाह कर भी यह सब न लिख पाते. " निर्मल से बहस करते हुए राम जी राय उनके द्वारा बनाई गई 'भारतीयता' के बर-अक्स पाठकों को उस गतिशील वास्तविक भारतीयता से रु-ब-रु कराते हैं जो 'धर्म-मर्यादित संस्कृति राष्ट्रवाद' से व्याख्यायित और परिसीमित नहीं हो सकती. भारतीय रिनेसां की सामर्थ्य और सीमा को गाँधी के उदाहरण से राम जी राय इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, "अपनी समस्त वर्गीय चिंतनगत कमजोरियों और सीमाओं के बावजूद गांधी ही थे जिन्होंने प्रकृति की आधुनिक खोज, रेनेसां के मर्म को अपना आधार  बनाया. उन्होंने किसी वैदिक मंत्र, किसी राम को स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक नहीं बनाया, प्रतीक बनाया तो चरखे  को. चरखा  महज स्वदेशी का, स्वावलंबन का ही नहीं, अपनी भारतीय स्थितियों में आधुनिकता का, प्रकृति की नई खोज  का प्रतीक था.  रेनेसां का भारतीयकरण था. बेशक अपनी सीमाओं के चलते इसके सर्वतोमुखी  विकास को वे नेतृत्व नहीं दे सकते थे। फिर  भी भारत के अचल मनोहारी दृश्य की जगह हमारी आधुनिकता का आधार , भविष्य का नक्शा  निर्मित करने की रेखाएं  जिस सांस्कृतिक त्रासदीमें भारत डाल दिया गया था, उससे निकलने का लक्षण पेश किया. और इस गांधी  को अपना भारतीय आत्महासिल करने के लिए अपना यूरोपीयकरण करने और फिर उससे परे निकल जाने की दरकार नहीं पड़ी."                  
    
 संस्कृति और राजनीति का हिंदी-उर्दू क्षेत्र

  इस संग्रह के तमाम लेखों में अंतर्सूत्र की तरह व्याप्त है हिंदी-उर्दू क्षेत्र की राजनीति और साहित्य-संस्कृति के विकास और उसकी सही दिशा की चिंता. इस चिंता का एक बड़ा पक्ष है साम्प्रदायिक फासीवाद की समकालीन चुनौती. आज़ादी के आंदोलन और नवजागरण की भी बड़ी कमजोरी थी कि वह साम्राज्यवाद और सामंतवाद से मुकम्मल लड़ाई न  छेड़ सका,  उनसे समझौता किया. "आजादी भी हमारे सामने समझौते के रूप में आई - साम्राज्यवाद से समझौते के रूप में, सामंतवाद से समझौते के रूप में, संप्रदायवाद से समझौते के रूप में, आधुनिकता और परंपरा के साथ समझौते के रूप में", इस प्रक्रिया  के अनेक साक्ष्य रामजी राय अम्बेडकर , प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध से देते चलते हैं अपने लेख, 'हिंदी-उर्दू क्षेत्र की राजनीति और साहित्य' में. ये समझौते तो साम्प्रदायिक फासीवाद के फलने-फूलने की ऐतिहासिक ज़मीन प्रदान करते ही है, उसपर से १९९० के दशक तक आते-आते  नेहरूवादी आर्थिक माडल की विफलता, कट्टरपंथ और दक्षिणपंथ का अंतरर्राष्ट्रीय उभार, राजनीतिक व्यवस्था से गहराता असंतोष और  राष्ट्रीय एकता के काल्पनिक और वास्तविक खतरों ने उसे हमारे दौर में ठोस राजनीतिक रूप अख्तियार करने  का मौक़ा दिया. विडम्बना यह रही कि कांग्रेसी सरकारी प्रतिक्रिया उदार हिन्दू मत के इस्तेमाल और कानूनी उपायों तक सीमित रही और वामपंथ की सामाजिक जनवादी पार्टियों ने भी साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में इन्हीं औजारों को तथा लिबरल बुर्जुआ के नेतृत्व को येन -केन-प्रकारेण स्वीकार कर लिया. साम्प्रदायिकता यदि एक आधुनिक विचारधारा है , तो उससे लडने के वैचारिक स्रोत भी आधुनिक ही होंगे, पुरानी  परंपरा से नहीं आएँगे. यह तदर्थवाद है. राम जी राय दो-टूक यह भी कहते हैं कि," यह भी स्पष्ट कर दूं कि पिछड़ी जातियों के आरक्षण के रूप में मंडल का समर्थन किया जाना चाहिए , ब्राह्मणवाद से कोई चार आना भी लड़ रहा हो तो उस का समर्थन किया जाना चाहिए लेकिन अगर उस के जरिए वह संकीर्ण राजनीति कर रहा हो, तो उस की संकीर्ण राजनीति का जमकर विरोध किया जाना चाहिए." ब्राह्मणवाद भी साम्प्रदायिक फासिस्ट राजनीति का एक आयाम है, जिसके खिलाफ दलित-पिछड़ी जनता गोलबंद भी खूब हुई ,लेकिन जिस संकीर्ण राजनीति का ऊपर उल्लेख है , वह जन-आकांक्षाओं से दगा ही करती रही.  'सामाजिक न्याय' की एक सरकार के समय मध्य बिहार में दलित जनसंहारों का तांता लग गया , जिन सामंती ताकतों ने इसे अन्जाम दिया उन्हें एक ओर साम्प्रदायिक फासिस्टों का तो दूसरी ओर कथित 'सामाजिक न्याय' की सरकारों का संरक्षण प्राप्त रहा. राजनीति की मुख्यधारा में  साम्र्प्रदायिकता-विरोध की राजनीति के सभी संस्करण और उनकी पार्टियां अवसरवाद और तदर्थवाद के तहत फासिस्टों से मोलतोल, संश्रय स्थापित करती रहीं और कुछ  तो  कि यू.पी. और बिहार में उनके साथ मिलकर सरकार चलाने तक गई. नतीजा यह रहा कि  आज क़ानून, न्यायपालिका, मीडिया,सुरक्षाबल और नौकरशाही सहित सामाजिक जीवन का कोई पहलू नहीं जहां फासिस्टों की दखल नहीं, वे सत्ता में हो या न हों. अकलियतों पर ज़ुल्म बढ़ा ही है, घटा नहीं. साम्प्रदायिक फासीवाद से लडने की इन रणनीतियों ने उसे संजीवनी दी है. 'हिंदी-उर्दू क्षेत्र की राजनीति और साहित्य' शीर्षक लेख इन रणनीतियों में निहित तदर्थवाद और अवसरवाद, वैचारिक खोखलेपन की साहित्यिक परिणतियों की  भी पड़ताल करता है.   गुजरात जनसंहार ने साम्प्रदायिक ताकतों के नंगे नाच और उसके सम्मुख साम्प्रदायिकता-विरोधी शासकीय रणनीतियों की असहायता को भी हस्तामलकवत उपस्थित कर दिया. गुजरात सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं है, इसे रामजी राय उसी समय लिखे 'साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ संयुक्त अभियान ज़रूरी है' शीर्षक  लेख में रेखांकित करते  हैं. आज जब मीडिया और उद्योग-जगत में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रचार-युद्ध चला हुआ है, तो यह बात और भी ज़्यादा साफ़ है सबके सामने.    
   हिंदी-उर्दू क्षेत्र की सांस्कृतिक आबो-हवा बदलने में क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका और ज़रूरत , उसके कार्यभार, उसकी ऐतिहासिक और फौरी चुनौतियों को 'आइये बनें नए बसंत के अग्रदूत' शीर्षक लेख में विस्तार से चिन्हित किया गया है. यह सिर्फ अपने समय का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि निरंतरता में प्रवाहित एक सतत आह्वान है, जिससे हर क्रांतिकारी संस्कृतिकर्मी को राह मिलती है.     
 'भोजपुर का क्रांतिकारी किसान आंदोलन: एक झलक' शीर्षक लेख एक तरह से इस पूरे संग्रह में रामजी राय जिन विचारों और अवधारणाओं को सामने लाते और विक्सित करते हैं, उनकी क्रियागत  आधार-भूमि की ही झलक है. क्रांतिकारी वाम आंदोलन ने हिंदी-उर्दू क्षेत्र में जिस प्रयोगशाला में अपने तमाम वैचारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्त्रों को मांजा और सान  चढाया है, वह प्रयोगशाला  है भोजपुर का आन्दोलन, जिन अंतर्दृष्टियों से वह समृद्ध हुआ है, उसके शिक्षण- प्रशिक्षण की भूमि है 'भोजपुर'. वही भोजपुर जहां नागार्जुन के शब्दों में 'भगत सिंह  ने नया-नया अवतार लिया है." इस संग्रह में उस माटी की गंध और उसके महान शहीदों की स्मृति समाई हुई है. भारतीय इतिहास और भवितव्य से उस क्रांतिकारी भूमि के साक्षात्कार की रश्मि-रेखाएं इस पुस्तक का आलोक हैं. यह भोजपुर गोरख पाण्डेय, माहेश्वर और रामजी राय, हमारे क्रांतिकारी आंदोलन के इन अगुवाओं की रचनाओं और सांस्कृतिक-राजनीतिक क्रियाशीलता की सदा जीवित प्रेरणा है.   कामरेड विनोद मिश्र को इस पुस्तक का समर्पण भी इसी जीवित प्रेरणा का उद्घोष है.     

Monday, 27 May 2013

सव्यसाची: अमिताभ ने जया की कला की हत्या की


(जब इक्कीसवीं सदी की शुरुआत हुई तो मीडिया ने धड़ल्ले से अमिताभ बच्चन को  सदी का महानायक घोषित कर दिया। दरअसल हमारे मीडिया और सिनेमा जगत को बिकाऊ चेहरा चाहिए। चाहे उस चेहरे की हकीकत कुछ भी क्यों न हो। भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने के जश्न मनाये जा रहें हैं। धड़ाधड़ पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकल रहें हैं।  लेकिन क्या हम भारतीय सिनेमा जगत में व्याप्त सामंती-पूंजीवादी मानसिकता के खिलाफ कोई मुहिम देखते हैं। 'उत्तरार्ध' और 'उत्तरगाथा'  जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन करने वाले प्रतिबद्ध मार्क्सवादी सव्यसाची ने सिनेमा जगत में व्याप्त इसी सामंती-मर्दवादी मानसिकता की तरफ संकेत अपने निम्न लिखित लेख में किया है।)


...मैं जिस अभिनेत्री को फिर से फिल्मों में काम करते हुए देखना चाहता हूँ, उसका नाम जया भादुड़ी है। इस छोटे से कद की मामूली चेहरे-मोहरे वाली अभिनेत्री ने अभिनय की जिस ऊंचाई से फिल्म क्षेत्र में प्रवेश किया, उसे देखकर लगता था, काल के लंबे अंतराल में ऐसी प्रतिभा सम्पन्न एकाध ही अभिनेत्री पैदा होती है। मैं यह सब भावनाओं के ज्वार में बहकर नहीं कह रहा हूँ, गुड्डी’, शोर’, मिलि’, और अभिमान से लेकर कोशिश’, और नौकर तक अनेक फिल्मों में उसके सजीव अभिनय को देखा-परखा जा सकता है। लेकिन वर्तमान समाज व्यवस्था में नारी की सुरक्षा भावना से प्रेरित हो कर एक साधारण नारी की तरह इसने भी विवाह द्वारा परिवार की सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अपनी कला का गला घोंट दिया। शादी करना बुरी बात नहीं है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन इतनी महान कलाकार अपनी कला छोड़ देने की शर्त पर शादी करे, इसे किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता है। अमिताभ से प्रेम के लिए ही सही, फिर भी जया ने अपनी जिंदगी का बहुत मामूली कीमत पर सौदा किया है। क्या एक मात्र कला की नई-नई ऊंचाइयों को स्पर्श कराते चले जाना ही जीवन को सार्थकता और तृप्ति ककई नई अनुभूति देने के लिए पर्याप्त नहीं था? फिर शादी करके परिवार की सुरक्षा और मातृत्व की सार्थकता को ही प्राप्त करना था तो क्या कला को जीने की हसरत पर शादी नहीं की जा सकती थी? आत्महत्या का जैसा उदाहरण जया ने हमारे सामने रखा है, वह दुर्लभ होता है। रही प्रेम में त्याग की बात, तो मौजूदा समाज-व्यवस्था में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न वर्ग के पुरुषों के लिए प्रेम का क्या अर्थ होता है, इसे किसी को बताने की जरूरत नहीं है। जया ने प्रेम किया लेकिन क्या बदले में वैसा प्रेम पाया? हाँ, अपने हाथ से ही अपनी कला का गला घोंट देने का पुरस्कार उसे कुछ बच्चे के रूप में जरूर मिला लेकिन क्या इस उपलब्धि के लिए इतने त्याग की जरूरत थी? क्या जया आज संतुष्ट है! क्या अभिनय से दूर रहकर वह लगातार यातना की आग में नहीं जल रही? बच्चे तो जेनी फांडा भी प्राप्त कर लेती है और शादी तो सोफीया लोरे ने भी की थी। क्या इन महान अभिनेत्रियों ने कला की कीमत पर शादी और बच्चे हासिल किए थे? जया ने अपने साथ ही नहीं, हम सबके साथ और सम्पूर्ण मानवता के साथ ज्यादती की है। जया की कला समाज की ही देन थी और उस पर समाज का अधिकार था। हमें उस अधिकार से वंचित करके जया ने समाज के साथ अत्याचार किया है। मैंने उसे एक पोस्टकार्ड में चार पंक्तियाँ लिख कर यह इसरार भी किया था कि वह घर की चहारदीवारी में कैद हो जाने के अपने गलत निर्णय को बदल कर फिर से अभिनय की दुनिया में लौट आए लेकिन मेरा खत जया तक पहुंचा ही नहीं होगा और यदि उसकी नजर से गुजरा भी होगा तो भी उसके लिए घर की कैद से बाहर निकलना मुमकिन नहीं हो पाया होगा क्योंकि भारतीय नारी मौजूदा दौर में इस कैद को भोगने के लिए अभिशप्त है। यूं कुछ साहसी लड़कियां इन जंजीरों को तोड़ने का खतरा भी उठाती हैं। लेकिन अपनी सम्पूर्ण कला-प्रतिभा  के बावजूद जया का व्यक्तित्व परंपरागत भारतीय नारी का प्रतिरूप है जो सहते और त्याग करते चले जाने में ही एक काल्पनिक सुख की अनुभूति करती हुई जिंदगी मे मोमबत्ती की तरह तिल-तिल करके गलती-जलती रहती है। मुझे जया से ही नहीं, इस मामले में अमिताभ से भी कम शिकायत नहीं है। हरिवंश राय बच्चन जैसे रोमांटिक कवि का बेटा होने पर भी उसने तेजी बच्चन जैसी प्रगतिशील माँ को पाया है और उसके साथ बींसवीं सदी के ज्ञान-विज्ञान और देश-विदेश के जन संघर्षों की एक व्यापक परंपरा मौजूद है- इस सबके बावजूद अपनी महान कलाकार पत्नी को कला की दुनिया से दूर घर तक सीमित रख कर अमिताभ ने अपनी परंपरावादी पिछड़ी हुई चेतना का सबूत दिया है। एक ओर तो अमिताभ ने इस पूंजीवादी युग की अधिक से अधिक दौलत बटोरने की  प्रवृत्ति के तहत सात हिंदुस्तानी और रेशमा और शेरा की अपनी अभिनय संभावनाओं का गला घोंटा है और दूसरी ओर औरत को घर तक सीमित रखने की सामंती-दकियानूसी मान्यताओं द्वारा जया की कला की हत्या की है। न जाने यह कैसी समझदारी है जो यहाँ रह जाने वाली नाशवान दौलत की चमक-दमक में युग-युग जीवित रहने वाली अपनी प्रतिभा की हत्या करा देती है और यह कैसा प्रेम है जो हमें अपनी पत्नी को विकास के अवसर देना तो दूर रहा, मिले हुये अवसरों से भी वंचित कर देने की ओर प्रवृत्त करत है। मुझे नहीं लागता अमिताभ की समझ में मेरी बात आएगी क्योंकि दौलत की चमक आदमी की आँखों को ही नहीं अंधा कर देती है उसकी बुद्धि और आत्मा को भी नष्ट कर देती है...
                                                                           *सिनेमा पर लिखी गई एक पुस्तक  का अंश, 1984

Saturday, 25 May 2013

अकोट में साम्‍प्रदायिक हिंसा : एक पूर्व नियोजित साजिश




23 नवम्‍बर, वर्धा से गये एक जांचदल, जिसमें महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापक, छात्र, वर्धा के सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार सम्मिलित थे, ने अकोट (जिला अकोला) का दौरा किया। पिछले 23 अक्‍टूबर को अकोट ताल्‍लुका में साम्‍प्रदायिक हिंसा की घटना हुई थी जिसमें 4 लोग मारे गये थे एवं कई लोग घायल हुए थे। मुस्लिम समुदाय के 22 घरों को आग के हवाले कर दिया गया था और लगभग 25 दुकानों को जलाया गया था। मरने वालों में सभी निम्‍नमध्‍यवर्गीय पृष्‍ठभूमि से थे।

साम्‍प्रदायिक हिंसा की पृष्‍ठभूमि :

      साम्‍प्रदायिक हिंसा की पृष्‍ठभूमि 19 अक्‍टूबर को तैयार की जाती है। पूरे अकोट ताल्‍लुके में 65 मंडल देवी के लगाये गये थे। प्रत्‍येक मंडल का संबंध किसी न किसी जातीय समाज से रहता है। मसलन माली समाज, कुनबी समाज, धोबी समाज आदि। धोबी और भोई समाज के एक मंडल, जिसके कर्ताधर्ता बजरंग दल, शिवसेना, विश्‍व हिंदू परिषद के लोग थे, के पास से निकलते हुए एक मुस्लिम बच्‍चे ने गलती से वहाँ पर थूक दिया। उसके साथ उसका हमउम्र दोस्‍त भी था। उसका थूक देवी की प्रतिमा को छुआ तक नहीं लेकिन पर्दे पर उसके कुछ छींटे जरूर पड़े। उस बच्‍चे को मंडल के लोगों ने पकड़ लिया और उसकी पिटाई करने के बाद वहीं पर बैठा लिया। इतनी देर में जब कुछ शोर-शराबा हुआ तो लोगों की भीड़ वहाँ पर एकत्र हुई और मामले को समझने के लिए शोएब नाम का व्‍यक्ति भी वहाँ पर पहुँचा और उसने कुछ हस्‍तक्षेप भी किया और मंडल के लोगों को समझाने की भी कोशिश की। उसने बच्‍चे की उम्र का भी हवाला दिया। बच्‍चे की उम्र 7-8 साल की थी। मंडल के लोगों की तरफ से यह भी कहा गया कि आज ये देवी की प्रतिमा पर थूक रहे हैं कल हमारे मुँह पर थूकेंगे। बहरहाल शोएब ने किसी तरह से मामले को शांत कराया और बच्‍चे को मंडल के लोगों से मुक्‍त कराया। इस घटना की चर्चा लगभग आधे घण्‍टे के बाद आस-पास के इलाके में फैल चुकी थी। एजाज नामक टेलर जिसकी घटना स्‍थल से कुछ दूर पर ही दुकान थी मंडल के लोगों के पास आया और उसने जानना चाहा कि मामला क्‍या है और उसके बाद वह भी लौटकर अपनी दुकान पर वापस आ गया।
      लगभग आधे घण्‍टे के अन्‍दर पुलिस एजाज की दुकान पर पहुँचती है और बच्‍चे के बारे में पूछती है कि वो कौन है, कहाँ से है आदि। एजाज को घटना की जानकारी थी लेकिन बच्‍चे कौन है इसकी जानकारी नहीं थी और इस वजह से उसने पुलिस के सामने बच्‍चों के नाम और पते के बारे में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी और पुलिस वहाँ से चली गयी। आधे घण्‍टे के बाद पुलिस फिर से वहाँ पर आती है और एजाज से पूछताछ करती है। इस बार भी एजाज के द्वारा बच्‍चो के नाम और पते पर असमर्थता जाहिर करने पर पुलिस उसे थाना अकोट ले जाती है। इस बीच अकोट से आमदार (विधायक) संजय गावंडे (शिवसेना) थाने के बाहर दल-बल के साथ पहुँच जाते हैं उनके समर्थकों में बजंरग दल, विश्‍व हिन्‍दू परिषद, छावा संगठन के लगभग 250 से 300 लोग थाने में जुटते हैं और नारेबाजी शुरू हो जाती है। उनकी स्‍थानीय पुलिस अधिकारियों से काफी तू-तू मैं-मैं थाने में होती है। आमदार और उनके समर्थकों के दबाव के चलते कि 'बच्‍चों को हाजिर किया जाये', पुलिस के द्वारा एजाज की पिटाई की जाती है (बाजीराव पट्टे से)। लगातार बढ़ते दबाव के चलते पुलिस थाने में शोएब को हाजिर करती है और शोएब बच्‍चों का नाम एवं पता पुलिस के सामने जाहिर कर देता है। पुलिस तुरन्‍त ही बच्‍चों को उनके वालिद के साथ थाने में हाजिर कर देती है।
बच्‍चों के थाने में आते ही उनकी उम्र देखकर वहाँ मौजूद पुलिस के आलाधिकारी ये कहते हैं ये बच्‍चे तो खुद ही भगवान का रूप हैं और इन्‍होंने जानबूझकर नहीं बल्कि गलती से ही  थूका है। आमदार महोदय भी बच्‍चों को देखकर ढीले पड़ जाते हैं और तुरन्‍त एक नया पैंतरा खेलते हैं कि बच्‍चे तो मासूम हैं लेकिन सूत्रधार  कोई और है और आप लोग जल्‍दी से जल्‍दी उस मुख्‍य अभियुक्‍त को पकडि़ये जिन्‍होंने देवी का अपमान करवाया है और यह कहकर दल-बल के साथ वापस चले जाते हैं। पुलिस रातभर थाने में शोएब और एजाज को रखती है और उन पर धारा 107 लगायी जाती है । अगले दिन वे दोनों जमानत पर रिहा होते हैं। शोएब का गुनाह यह था कि उसने मामले को शांत कराया था एवं एजाज घटना स्‍थल पर मामले को समझने के लिए पहुँचा था। शिवसेना के विधायक और हिंदू साम्प्रादायिक संगठनों के लोगों की 'भावनाओं' को संतुष्‍ट करने के लिये दो बिलकुल निर्दोष लोगों को बलि का बकरा बनाया गया। बहराल यह 19 अक्‍टूबर का घटना क्रम था और इसके बाद मामला शांत हो गया था लेकिन इस शांति के बावजूद मुस्लिम समाज में काफी दहशत व्‍याप्‍त हो गयी थी।

तत्‍कालीन राजनीतिक घटनाक्रम :
21 अक्‍टूबर को अकोट ताल्‍लुका में नगर पालिका की एक सीट के लिये उपचुनाव था। अकोट ताल्‍लुका में कुल 31 सीटें हैं जिसमें दिसम्‍बर, 2011 को मतदान हुआ था। विजयी प्रत्‍याशियों में 2 सीट शिवसेना एवं 2 सीटें भाजपा के खाते में गयी थीं। जिसमें 1 सीट वार्ड क्रमांक 5 में मनोज रघुवंशी की पत्‍नी ज्‍योति मनोज रघुवंशी शिवसेना से चुनकार आयी थी कांग्रेस से मुस्लिम महिला उम्‍मीदवार जो चुनाव हार गयी थी, ने मनोज रघुवंशी की पत्‍नी की जीत के खिलाफ न्‍यायलय में चुनौती दी थी। कांग्रेस की प्रत्‍याशी के पास आधार यह था कि मनोज रघुवंशी के दो से ज्‍यादा बच्‍चे हैं (महाराष्‍ट्र में यह नियम है कि जिनके 2001 के बाद से 2 से ज्‍यादा बच्‍चे हैं वह किसी भी तरह का चुनाव नही लड़ सकता है।) कांग्रेस की प्रत्‍याशी की चुनौती वाजिब थी और जब जांच हुई तब यह पाया गया कि उनके दो से ज्‍यादा बच्‍चे हैं और उनकी जीत को निरस्‍त कर दिया गया। इस बार उस सीट पर चुनाव के लिये मनोज रघुवंशी के परिवार से शिवसेना प्रत्‍याशी मनीषा राहुल रघुवंशी और कांग्रेस से सलमा निशात प्रत्‍याशी थीं।  चुनाव का परिणाम घोषित होने पर शिवसेना को वह सीट गंवानी पडी और कांग्रेस की प्रत्‍याशी उस सीट पर चुनाव जीत गयी।
1989 से संपन्‍न हुए अभी तक विधानसभा के 05 चुनावों में 04 बार शिवसेना प्रत्‍याशी ही विजयी हुए हैं और 2014 में लोकसभा तथा महाराष्‍ट्र के विधानसभा के चुनाव भी होने हैं।  शिवसेना से वर्तमान विधायक संजय गावंडे 3 साल के अपने कार्यकाल के दौरान अकोट की जनता के बीच में काफी अलोकप्रिय साबित हो चुके हैं, जिसकी परिणति पिछले साल सम्‍पन्‍न हुए नगर पालिका के चुनाव में भी देखने को मिली और केवल 2 सीटें ही शिवसेना को मिली। हालिया नगर पालिका के उपचुनाव में संजय गावंडे की अलोकप्रियता के चलते ही वह सीट शिवसेना को गवानी पड़़ी।

23 अक्‍टूबर का घटनाक्रम :
      19 अक्‍टूबर की घटना के बाद से ही पूरे नगर में यह अफवाह थी कि देवी विसर्जन के कार्यक्रम के दौरान जो यात्रा निकलेगी उसमें मुस्लिम समुदाय के लोग कुछ न कुछ गड़बड़ी करेंगे। मसलन यह भी अफवाह थी कि मुसलमानों ने ढेर सारे पत्‍थर इक्‍ट्ठा कर के रखें है जो विसर्जन के कार्यक्रम के दौरान देवी पर चलाये जाएंगे। इस अफवाह को फैलाने में साम्‍प्रदायिक संगठनों के साथ-साथ स्‍थानीय दुकानदारों, छोटे व्‍यापारियों की भी बड़ी भूमिका थी।
      23 अक्‍टूबर को देवी विसर्जन का कार्यक्रम था। देवी विसर्जन के कार्यक्रम के लिये यात्रा निकलनी थी और जिसमें नगर के सैकडों लोगों को शामिल होना था। प्रशासन ने सख्‍त इंतजाम किये थे। मसलन हर वो इलाका जहाँ से यात्रा को निकलना था और यदि वहाँ पर कोई मस्जिद है या मुस्लिम बस्‍ती है तो 'बेरिकेटिंग' का भी इन्‍तजाम किया गया था और भारी मात्रा में पुलिस बल तैनात किया गया था।
      देवी विसर्जन के कार्यक्रम के लिये लोग जुलूस में जा रहे थे। अचानक ठीक उसी जगह के पास जहाँ पर बच्‍चे के थूकने की घटना हुई थी एक मंडल के लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि पत्‍थर आया और हमको पत्‍थर आकर लगा। पुलिस ने तुरंत आस-पास देखा लेकिन क‍हीं से कोई पत्‍थर नहीं आया था और फिर से जुलूस को आगे बढ़ाया गया। पत्‍थर आने की सूचना आग की तरह फैली और कुछ भगदड़ भी मची लेकिन पुलिस ने स्थिति पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया। (पुलिस के आलाधिकारियों से जांचदल ने मिलकर यह जानने की कोशिश भी की थी कि क्‍या कोई पत्‍थर आया था अथवा पत्‍थर से हमला हुआ था तो उन्‍होंने कहा कि कोई पत्‍थर नहीं आया यह केवल अफवाह थी)।


हिंसा का दौर :
देवी विसर्जन का कार्यक्रम चल रहा था कि लगभग 7-8 बजे नगर के बिल्‍कुल बाहरी इलाके और एक तरह से मलिनबस्‍ती बरडे प्‍लाट में जहाँ पर ज्‍यादातर मुस्लिम समाज और बारी समाज के लोग रहते हैं। दंगाइयों ने हमला कर दिया। दंगाइयों ने मुसलमानों के 22 घरों[1] को जलाया और दो लोगों की हत्‍या कर दी। हाजी मुहम्‍मद यासीन (उम्र लगभग 80 साल) जो कि फालिज के शिकार थे और भाग नहीं पाये, दंगाइयों ने उन्‍हें मार दिया। उनको बचाने के लिये उनकी पत्‍नी जुलेखां बी (उम्र लगभग 75 साल) के पैर पर दंगाइयों ने धारदार हथियार से हमला किया और उनको मारने के लिये लोहे की रॉड का इस्‍तेमाल किया गया, जिसके चलते वो बुरी तरह जख्‍मी हुई और बेहोशी की हालात में ही उनको अकोला के सरकारी अस्‍पताल में भर्ती किया गया। 16 साल का एक लड़का मोहम्‍मद जफरूद्दीन जो थोडी देर पहले ही काम पर से लौटा था दंगाइयों ने उसकी भी हत्‍या कर दी। जांच दल जब पीडि़त व्‍यक्तियों से मिला तो उन्‍होंने बताया कि दंगाइयों के पास मशाल, लोहे के पाइप, तलवारें, मिट्टी का तेल मौजूद था। जांच दल को मुस्लिम समुदाय के जले हुए घरों से छोटी-छोटी शीशियां मिली जिसमें केमिकल भर कर हर घर में फेंका गया था और जिसकी तैयारी पहले से ही दंगाइयों ने की थी।
घटना के कुछ देर के बाद पुलिस भी वहाँ पर पहुँचती है और चीजों को नियंत्रित करने की कोशिश करती है जिसके जवाब में हिन्‍दू साम्‍प्रदायिक तत्‍वों की तरफ से पुलिस पर भी हमला होता है और पुलिस के जवानों को भी चोट आती है। साम्‍प्रदायिक तत्‍व फायर बिग्रेड की गाड़ी को भी उस इलाके में जाने से रोकते हैं, जहाँ पर दंगाइयों ने मुसलमानों के घरों में आग लगाई थी। पुलिस के मुताबिक हमलावरों में से एक व्‍यक्ति योगेश महादेवराव रेखाते (उम्र 23 साल) जो मुस्लिम बस्‍ती में काफी अन्‍दर तक आ गया था मारा जाता है। मुस्लिम समुदाय की तरफ से जवाबी कार्रवार्इ में 24 अक्‍टूबर की सुबह मनोहर राव बुधे (कासार समाज से उम्र 82 साल) की हत्‍या कर दी जाती है। 24 अक्‍टूबर शाम छ: बजे कर्फ्यू के दरम्‍यान मुसलमानों की आठ दुकानें एवं 1 हिन्‍दू की भंगार (कबाड़) की दुकान में आग लगाई जाती है एवं सब्‍जी मण्‍डी में 5 दुकाने मुस्लिम समुदाय की तथा 9 दुकाने हिन्‍दू समुदाय की आग के हवाले कर दी जाती है।[2] (पुलिस की तरफ से अभी तक दोनों समाज के लोगों में से लगभग 50-50 लोगों को छोटी तथा बड़ी धाराओं के अन्‍तर्गत पकड़ा गया है।)
हिंदू साम्‍प्रदायिक ताकतों की दंगे में भूमिका :
जांच दल के लोगों ने जब पीडि़त व्‍यक्तियों से मुलाकात की और हमलावरों की पहचान के बारे में जानना चाहा तो मालूम पड़ा कि हमलावरों में ज्‍यादातर बारी समुदाय (हिंदू, ओ.बी.सी.)  और बाहर के लोग थे। पूरे अकोला जिले में पान का जो भी उत्‍पादन होता है वह बारी समाज के लोगों के द्वारा ही होता है। बारी समाज का बड़ा हिस्‍सा आज भी निम्‍न-मध्‍यम वर्गीय पृष्‍ठभूमि से आता है और बारी समाज में शिक्षा का अभाव भी व्‍यापक स्‍तर पर है। बारी समाज के प्रभावशाली नेता महादेवराव बोड़के जो दिवंगत हो चुके हैं RSS के थे। गजानन माकोड़े (बारी) बजरंग दल के नगराध्‍यक्ष, अनन्‍त मेषाण, शिवसेना नगर अध्‍यक्ष एवं अन्‍य साम्‍प्रदायिक संगठनों के प्रमुख पदों पर बारी समाज के लोग हैं। बारी समाज परम्‍परागत रूप से शिवसेना के साथ है। अकोट में जिस इलाके से दंगे की शुरूआत हुई वहाँ पर मुस्लिम और बारी दोनों समाज के लोग बिलकुल आस-पास रहते हैं और दोनों की बस्तियाँ आपस में बिलकुल सटी हुई हैं। 1999 में एक साम्‍प्रदायिक तनाव की घटना अकोट में हुई थी और बीचो-बीच बाजार में भगदड़ मची थी, जिसमें भगदड़ के कारण बारी समाज का एक बुजर्ग 80-85 साल का मारा गया था। इस घटना को साम्‍प्रदायिक संगठनों ने एक राजनीतिक रूप दे दिया था। इस घटना ने साम्‍प्रदायिक संगठनों को पूरे बारी समुदाय को साम्‍प्रदायिक चेतना से लैस करने में बड़ी मदद की और इस बार के दंगे में भी साम्‍प्रदायिक ऐजेण्‍डा को पूरा करने के लिए बारी समुदाय को मुसलमानों के खिलाफ 'टूल' के रूप में इस्‍तेमाल किया गया।
जांचदल ने हिंदू समुदाय के लोगों से मिलकर घटना के कारणों को जानने की तथा दंगे के दरम्‍यान उनकी मानसिकता को समझने की कोशिश की तो यह मालूम पड़ा कि किसी भी व्‍यक्ति को कोई ठोस औार यथार्थपरक जानकारी नहीं है। बल्कि अफवाहों के चलते पूरा समुदाय घटना के लिये मुस्लिम समुदाय को ही जिम्‍मेदार मानता है। मसलन जानबूझ कर देवी की प्रतिमा को अशुद्ध किया गया, देवी पर पत्‍थर फेंके गये एवं पहले हमला मुसलमानों की तरफ से हुआ इत्‍यादि। लोगों से बातचीत के क्रम मे ही जांच दल को यह भी मालूम पड़ा कि अकोला और अकोट दोनों ही जगह से मुस्लिम युवकों की सिमी के नाम पर गिरफ्तारियां हुई थीं लेकिन उनमें से ज्‍यादातर बाइज्‍जत बरी हो चुके हैं। लेकिन आतंकवाद और सिमी से जुड़े होने के चलते कुछ युवकों की हुई गिरफ्तारी ने हिन्‍दू जनमानस में इस अफवाह को फैलाने में बड़ी मदद की कि जो दंगा हुआ उसमें भी सिमी के लोगों का हाथ है। कुल मिलाकर सिमी से जुड़ी परिघटना को हिन्‍दू साम्‍प्रदायिक तत्‍वों ने इस दंगे में खूब इस्‍तेमाल किया और समाज का साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया। ज्‍यादातर हिंदू लोग मुसलमानों को लेकर वहीं परंपरागत धारणा बनाये हुए थे जिसका प्रतिनिधित्‍व राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ करता है।
बाबरी मस्जिद के विधवंस के बाद से साम्‍प्रदायिक तनाव की जो स्थिति यहाँ पैदा हुई तमाम सारे हिन्‍दू साम्‍प्रदायिक संगठन मिलकर उस तनाव को और बढ़ाने की कोशिश में जी जान से लगे हुए हैं और साम्‍प्रदायिक संगठनों ने यहाँ पर अपने जनाधार का काफी विस्‍तार किया है। केवल अकोट ताल्‍लुका में ही राष्‍ट्रीय स्‍वंय सेवक संघ के 400 कैडर, विहिप के 150, बजरंग दल के 200, छावा संगठन के 100, मराठा महासंघ के 150 कैडर प्रमुख रूप से साम्‍प्रदायिक ऐजेण्‍डे को गैर संसदीय तरीके से आगे बढ़ाने में सक्रिय हैं। इसके अलावा चुनावी राजनीति के तहत सक्रिय संगठनों में शिवसेना, भाजपा, नवनिर्माणसेना का भी पर्याप्‍त जनाधार है।
पूरे महाराष्‍ट्र में शिवसेना का सामाजिक आधार अन्‍य पिछड़ा वर्ग में है। कांग्रेस में शुरू से मराठा समाज के लोग वर्चस्‍व में रहे हैं पूरे महाराष्‍ट्र के अन्‍दर भी मराठाओं का वर्चस्‍व रहा है समाज के पिछड़े वर्गों को आजादी के बाद कांग्रेस की नीतियों के चलते कोई 'स्‍पेस' नहीं मिला। शिवसेना ने ही सबसे पहले अन्‍य पिछड़ा वर्ग के लोगों को राजनीति में स्‍पेस दिया। छगन भुजबल, जो पहले शिवसेना में थे और अब कांग्रेस में हैं और माली समाज से आते हैं, उन्‍होंने यह सार्वजनिक रूप से कहा कि 'आज मैं जो कुछ भी हूँ बाल ठाकरे की वजह से हूँ।'
जांच दल को अकोट के डिग्री कॉलेज के प्राध्‍यापक ने बताया कि इस पूरे क्षेत्र में जहाँ पर भी मुस्लिम आबादी का अनुपात ठीक-ठाक है वहाँ पर साम्‍प्रदायिक संगठनों ने अपने जनाधार को काफी मजबूत कर लिया है और सुनियोजित तरीकों से बार-बार साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा की जाती है। साम्‍प्रदायिक संगठन इस बात को हिन्‍दू समुदाय में ले जाते हैं कि यदि हिंदू एकजुट नहीं होगा तो मुस्लिम हम पर भारी पड़ेगें। यह परिघटना पूरे देश के पैमाने पर भी देखने में सामने आती है कि जहाँ-जहाँ मुस्लिम आबादी का प्रतिशत ठीक-ठाक होता है वहाँ पर अक्‍सर हिंदू साम्‍प्रदायिक संगठनों की ओर से सु‍नियोजित तरीके से साम्‍प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा की जाती है।

साम्‍प्रदायिक हिंसा का मुस्लिम समाज पर प्रभाव :
जांच दल ने मुस्लिम समुदाय, उनके नेताओं, पीडित व्‍यक्तियों तथा सामान्य  मुस्लिम नागरिकों से भी बातचीत की। बातचीत के क्रम में ही यह तथ्‍य सामने आया कि मुस्लिम समुदाय काफी दहशत में है। शिवसेना से विधायक संजय गावंडे एवं उनके समर्थकों पर पुलिस ने थाने का घेराव करने के कारण कुछ हलकी-फुलकी धारायें लगायी हैं लेकिन दंगे की पूर्वपीठिका को तैयार करने में जो भूमिका उनकी और उनके समर्थकों की रही है उसके लिये न तो सरकार ने और न ही पुलिस ने कोई कड़ा कदम उठाया है। मुस्लिम समुदाय पहले से और भी ज्‍यादा अपने में सीमित हुआ है। ऐसे समय में जो भूमिका सेकुलर राजनीति को अख्तियार करनी चाहिए थी उसका पूरे महाराष्‍ट्र में अभाव दिखता है। प्रदेश में कांग्रेस ने साम्‍प्रदायिक तकतों को काउन्‍टर करने के लिए हनुमान सेना का गठन किया है। (दैनिक भास्‍कर 24 अक्टूबर, 2012 ''हनुमान सेना को लेकर राजनीतिक हलचल'' के शीर्षक से एक खबर प्रकाशित हुई है - बजरंग दल के समानांतर कांग्रेस की हनुमान सेना भाजपा के लिए सिरदर्द बन सकती है। शिवसेना के साथ भाजपा के संबंधों में मिठास का पैमाना घटते जा रहा है। ऐसे में माना जा रहा है कि हनुमान सेना को हथियार बना कर शिवसेना भाजपा को कुछ मामलों में नुकसान पहुंचा सकती है।.… बजरंग दल कार्यकर्ताओं के पाला बदलने की संभावना को देखते हुए पैनी नजर रखी जा रही है।.… दो दिन पहले पूर्व नागपुर में हनुमान सेना की घोषणा की गई। वित्‍त व ऊर्जा राज्‍यमंत्री राजेंद्र मुलक व शिवसेना के जिला प्रमुख शेखर सावरबांधे की उपस्थिति में पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी ने कहा कि कांग्रेस की हनुमान सेना जन विकास के मुद्दों पर आक्रामक भूमिका में रहेगी।…. लेकिन हनुमान सेना को लेकर कहा जा रहा है कि वह कांग्रेस के लिए ऐसा विकल्‍प बनाने के उद्देश्‍य के साथ गठित की गई है, जिसमें बजरंगियों के अलावा शिवसैनिकों का समायोजन किया जा सके।…. अब तक ये संगठन भाजपा के लिए मददगार बने हुए हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से दोनों संगठन असंतोष के दौर से गुजर रहे हैं।…. बजरंगियों की शिकायत रहती है कि उन्‍हें अनुशासन के नाम पर सक्रिय कार्य करने से रोका जा रहा है। भाजपा में पूछ-परख कम हो रही है। चर्चा है कि कुछ असंतुष्‍ट कार्यकर्ताओं ने ही मोबाइल संदेश भेजकर बजरंगदल कार्यकर्ताओं से हनुमान सेना में शामिल होने का निवेदन किया।'') ऐसे में ज्‍यादातर राहत का कार्य या जिनकी गिरफ्तारियाँ हुई हैं उनके मुकदमें लड़ने के लिये वकील उपलब्‍ध कराने से लेकर आर्थिक मदद करने का काम धार्मिक संगठनों की तरफ से ही हो रहा है, जिसके चलते तमाम तरह के इस्‍लामिक धार्मिक संगठन मसलन जमात-ए-इस्‍लामी, अहले हदीस, अहले सुन्‍नतुल जमात, तब्‍लीग जमात जो इस्‍लाम का प्रचार-प्रसार करने का काम करते हैं, उनके लिये अवसर बढ़ रहा है। मुस्लिम समाज का अपने में सीमित हो जाने के चलते सबसे ज्‍यादा बुरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ रहा है। मसलन केवल उन्‍हीं मुस्लिम परिवारों की महिलायें घर से बाहर निकल पाती हैं जिनके घर में कोई मर्द नहीं है। शिक्षा के अवसर भी मुस्लिम महिलाओं के लिये काफी सीमित हो गये हैं। जांच दल को मुस्लिम समुदाय के लोगों से यह जानकारी मिली कि लगभग 20 साल पहले तक अकोट में मुस्लिम महिलाऐं भी सिनेमा देखने जाया करती थीं। लेकिन जब से दंगे का दौर शुरू हुआ तब से महिलायें सिनेमा देखने नहीं जाती हैं। कुल‍ मिलाकर मुस्लिम महिलाओं के आवागमन को 90 के दशक से ही काफी सीमित कर दिया गया है।

दंगे का नवउदारवादी आर्थिक पक्ष :
      अकोट में हुए दंगे में अफवाहों को फैलाने में छोटे-छोटे दुकानदारों से लेकर व्‍यापारियों की एक बड़ी भूमिका रही है। नई आर्थिक नीतियों के तहत खुदरा बाजार में जो प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश आ रहा है, जिससे देश भर का खुदरा व्‍यापार से जुड़ा व्‍यापारियों और दुकानदारों का तबका खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहा है। अकोट में साम्‍प्रदायिक संगठनों ने छोटे-छोटे दुकानदारों और व्‍यापारियों के अन्‍दर व्‍याप्‍त इस असुरक्षाबोध का फायदा इस रूप में उठाया कि केवल बीजेपी, शिवसेना या नवनिर्माण सेना जैसी राजनैतिक शक्तियां ही उनके हितों की रक्षा कर सकती हैं और इसी के साथ वे इन तबकों के बीच अपने साम्‍प्रदायिक ऐजेण्‍डे को ले गये। जहाँ कांग्रेस केंद्र और राज्‍य स्‍तर पर उसको लागू करने के लिये उतावली है तो वहीं दूसरी तरफ बीजेपी केन्‍द्र में और राज्‍य में भी विपक्ष में होने के चलते खुदरा बाजार में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश के विरोध में हैं जबकि शिवसेना और न‍वनिर्माण सेना खुदरा बाजार में निवेश के समर्थन में है लेकिन इस शर्त के साथ कि वॉलमार्ट  जैसी कम्‍पनियों में केवल मराठा मानुष को ही जगह अथवा रोजगार मिले।
विदर्भ देश का वह हिस्‍सा है जहाँ पर सर्वाधिक किसानों ने आत्‍महत्‍यायें की है। नवउदारवादी नीतियों के चलते पूरे विदर्भ में कृषि संकट और गहराया है। विदर्भ का एक बड़ा हिस्‍सा 90 के बाद से ही साम्‍प्रदायिक तनाव को किसी न किसी रूप में देख रहा है। अकोला, बुलढाणा (खामगांव) अमरावती के कुछ हिस्‍से तथा यवतमाल इन जिलों में साम्‍प्रदायिक ताकतों ने अपने जनाधार को काफी मजबूत कर लिया है और इस पूरे इलाके में किसी तरह का कोई भी औद्योगिक विकास न के बराबर है। पूरे महाराष्‍ट्र में मुंबई, नासिक, औरंगाबाद, पूणे, ठाणे को अगर छोड़ दिया जाये तो अधिकांश जिलों की अर्थव्‍यवस्‍था में कृषि की प्रधान भूमिका है। जैसे ही हमें या इस प्रदेश के बाहर के किसी व्‍यक्ति को यह सूचना मिलती है कि महाराष्‍ट्र के किसी इलाके में दंगा हुआ तो अमूमन लोग इस भ्रम का शिकार हो जाते है कि यह एक औद्योगिक रूप से विकसित प्रदेश है। लेकिन प्रदेश का अधिकांश हिस्‍सा आज भी प्राक् औद्योगिक अवस्‍था से ही गुजर रहा है। विदर्भ में कपास की खेती के व्‍यापक पैमाने पर होने के चलते ही यहाँ अकोला के साथ-साथ लगभग हर जिले में टेक्‍सटाइल मिले लगाई गयीं थी जो अब पूरी तरह से बन्‍द हो चुकी हैं। विदर्भ के कुछ इलाकों जैसे नागपुर, वर्धा, चंद्रपुर में पानी और कोयला की उपलब्‍धता प्रचुर मात्रा में होने के चलते ही बिजली के उत्‍पादन के लिये पॉवर प्‍लांट जरूर लगाये जा रहे है जिनसे और ज्‍यादा बिजली प्रदेश के उन इलाकों में भेजी जा सके जहाँ पर औद्योगिक उत्‍पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है।

जाँच दल को रंजन कावंडे (प्राध्‍यापक) एवं अयूब मियां देशमुख ने बताया कि अकोट में एक मंदिर है जिसकी देख रेख के लिये हैदराबाद के शासक निजाम की तरफ से आर्थिक मदद दी गई थी। केवल अकोट में ही नहीं बल्कि अमरावती में श्री शिवाजी एजूकेशन सोसाइटी की स्‍थापना में जो पहली मदद की गयी वो निजाम के द्वारा दी गयी थी इसी तरह निजाम ने नांदेड़ में एक गुरूद्वारा की स्‍थापना के लिए भी आर्थिक सहयोग दिया था। मंदिरों, गुरूद्वारा और हिन्दुओं द्वारा संचालित एक शैक्षणिक संस्‍था को एक मुस्लिम शासक के द्वारा दी गई आर्थिक मदद साम्‍प्रदायिक सदभाव के लिये एक बेहतरीन नमूना बन सकती थी लेकिन 90 के दशक से जब नई आर्थिक नीतियों की शुरूआत की जाती है और यह कहा जाता है कि बाजार अपनी शर्तों के मुताबिक काम करेगा एवं राज्‍य बाजार में कोई हस्‍तक्षेप नहीं करेगा वहीं दूसरी तरफ लगातार राज्‍य का अथवा राजनीति का धर्म (साम्‍प्रदायिकता) के साथ एक गठजोड़ भी बनता है, जिसकी परिणति अकोट एवं देश के दूसरे तमाम इलाकों में साम्‍प्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आती है।



[1] हसन खां, अ. मुख्‍तार, अ. लतीफ, अ. मुजम्मिल, अ. मोबीन, अ. मलिक, अ. अजीज, अ. मुक्‍तदीर, सरफराज खान, जुलेखां बी, म. हारून, जाकिर हुसैन, कलामून, म. सिद्दीक, म. आसिफ, सिराजुद्दीन, अ. हमीद, महमूदा खातून, अजमत खां, सलीम खां, इब्राहीम शा, सै. खुर्शीद। 
[2] कबाड़ की दुकान के मालिकों के नाम – मोहम्‍मद मुजाहिद, अ. अनसार, अ. मुबारक, अ. राजिद, सै. ज़हूर, सै. अकिल, गणेश गलांडे, अ. खालिफ, अ. आरिफ।
सब्‍जीमंडी की दुकान के मालिकों के नाम -  असलम शाह, साबीर शाहा, नासिर खां, प्रताप खलोकार, सुरेश शेंगोकार, भावराव सावरकर, राहुल सिरसकार, नाज़ीम खां, मोतीलाल गव्‍हाणे, मुकेश गणोरकार, प्रकाश गवरकार, गणगणे, विनोद फाटे, अनिस कबिरोद्दीन।




(जाँच दल के सदस्‍य : अ‍मीर अली अजानी, राजन विरूप, नीलेश झालटे, मोनीश कौशल, शरद जायसवाल।)