(जब इक्कीसवीं सदी की
शुरुआत हुई तो मीडिया ने धड़ल्ले से अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक घोषित कर दिया। दरअसल हमारे मीडिया
और सिनेमा जगत को बिकाऊ चेहरा चाहिए। चाहे उस चेहरे की हकीकत कुछ भी क्यों न हो। भारतीय
सिनेमा के सौ साल पूरे होने के जश्न मनाये जा रहें हैं। धड़ाधड़ पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक
निकल रहें हैं। लेकिन क्या हम भारतीय सिनेमा
जगत में व्याप्त सामंती-पूंजीवादी मानसिकता के खिलाफ कोई मुहिम देखते हैं। 'उत्तरार्ध' और 'उत्तरगाथा' जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन करने वाले प्रतिबद्ध
मार्क्सवादी सव्यसाची ने सिनेमा जगत में व्याप्त इसी सामंती-मर्दवादी मानसिकता की तरफ
संकेत अपने निम्न लिखित लेख में किया है।)
...मैं जिस अभिनेत्री
को फिर से फिल्मों में काम करते हुए देखना चाहता हूँ, उसका
नाम जया भादुड़ी है। इस छोटे से कद की मामूली चेहरे-मोहरे वाली अभिनेत्री ने अभिनय
की जिस ऊंचाई से फिल्म क्षेत्र में प्रवेश किया, उसे देखकर लगता
था, काल के लंबे अंतराल में ऐसी प्रतिभा सम्पन्न एकाध ही
अभिनेत्री पैदा होती है। मैं यह सब भावनाओं के ज्वार में बहकर नहीं कह रहा हूँ, ‘गुड्डी’, ‘शोर’, ‘मिलि’, और अभिमान से लेकर ‘कोशिश’,
और ‘नौकर’ तक अनेक फिल्मों में उसके सजीव
अभिनय को देखा-परखा जा सकता है। लेकिन वर्तमान समाज व्यवस्था में नारी की सुरक्षा
भावना से प्रेरित हो कर एक साधारण नारी की तरह इसने भी विवाह द्वारा परिवार की
सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अपनी कला का गला घोंट दिया। शादी करना बुरी बात नहीं
है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन इतनी महान कलाकार
अपनी कला छोड़ देने की शर्त पर शादी करे, इसे किसी भी तरह
उचित नहीं कहा जा सकता है। अमिताभ से प्रेम के लिए ही सही,
फिर भी जया ने अपनी जिंदगी का बहुत मामूली कीमत पर सौदा किया है। क्या एक मात्र
कला की नई-नई ऊंचाइयों को स्पर्श कराते चले जाना ही जीवन को सार्थकता और तृप्ति
ककई नई अनुभूति देने के लिए पर्याप्त नहीं था? फिर शादी करके
परिवार की सुरक्षा और मातृत्व की सार्थकता को ही प्राप्त करना था तो क्या कला को
जीने की हसरत पर शादी नहीं की जा सकती थी? आत्महत्या का जैसा
उदाहरण जया ने हमारे सामने रखा है, वह दुर्लभ होता है। रही
प्रेम में त्याग की बात, तो मौजूदा समाज-व्यवस्था में आर्थिक
दृष्टि से सम्पन्न वर्ग के पुरुषों के लिए प्रेम का क्या अर्थ होता है, इसे किसी को बताने की जरूरत नहीं है। जया ने प्रेम किया लेकिन क्या बदले
में वैसा प्रेम पाया? हाँ, अपने हाथ से
ही अपनी कला का गला घोंट देने का पुरस्कार उसे कुछ बच्चे के रूप में जरूर मिला
लेकिन क्या इस उपलब्धि के लिए इतने त्याग की जरूरत थी? क्या
जया आज संतुष्ट है! क्या अभिनय से दूर रहकर वह लगातार यातना की आग में नहीं जल रही? बच्चे तो जेनी फांडा भी प्राप्त कर लेती है और शादी तो सोफीया लोरे ने भी
की थी। क्या इन महान अभिनेत्रियों ने कला की कीमत पर शादी और बच्चे हासिल किए थे? जया ने अपने साथ ही नहीं, हम सबके साथ और सम्पूर्ण
मानवता के साथ ज्यादती की है। जया की कला समाज की ही देन थी और उस पर समाज का
अधिकार था। हमें उस अधिकार से वंचित करके जया ने समाज के साथ अत्याचार किया है।
मैंने उसे एक पोस्टकार्ड में चार पंक्तियाँ लिख कर यह इसरार भी किया था कि वह घर
की चहारदीवारी में कैद हो जाने के अपने गलत निर्णय को बदल कर फिर से अभिनय की
दुनिया में लौट आए लेकिन मेरा खत जया तक पहुंचा ही नहीं होगा और यदि उसकी नजर से गुजरा
भी होगा तो भी उसके लिए घर की कैद से बाहर निकलना मुमकिन नहीं हो पाया होगा
क्योंकि भारतीय नारी मौजूदा दौर में इस कैद को भोगने के लिए अभिशप्त है। यूं कुछ
साहसी लड़कियां इन जंजीरों को तोड़ने का खतरा भी उठाती हैं। लेकिन अपनी सम्पूर्ण
कला-प्रतिभा के बावजूद जया का व्यक्तित्व
परंपरागत भारतीय नारी का प्रतिरूप है जो सहते और त्याग करते चले जाने में ही एक
काल्पनिक सुख की अनुभूति करती हुई जिंदगी मे मोमबत्ती की तरह तिल-तिल करके गलती-जलती
रहती है। मुझे जया से ही नहीं, इस मामले में अमिताभ से भी कम
शिकायत नहीं है। हरिवंश राय बच्चन जैसे रोमांटिक कवि का बेटा होने पर भी उसने तेजी
बच्चन जैसी प्रगतिशील माँ को पाया है और उसके साथ बींसवीं सदी के ज्ञान-विज्ञान और
देश-विदेश के जन संघर्षों की एक व्यापक परंपरा मौजूद है- इस सबके बावजूद अपनी महान
कलाकार पत्नी को कला की दुनिया से दूर घर तक सीमित रख कर अमिताभ ने अपनी
परंपरावादी पिछड़ी हुई चेतना का सबूत दिया है। एक ओर तो अमिताभ ने इस पूंजीवादी युग
की अधिक से अधिक दौलत बटोरने की प्रवृत्ति
के तहत ‘सात हिंदुस्तानी’ और ‘रेशमा और शेरा’ की अपनी अभिनय संभावनाओं का गला
घोंटा है और दूसरी ओर औरत को घर तक सीमित रखने की सामंती-दकियानूसी मान्यताओं
द्वारा जया की कला की हत्या की है। न जाने यह कैसी समझदारी है जो यहाँ रह जाने
वाली नाशवान दौलत की चमक-दमक में युग-युग जीवित रहने वाली अपनी प्रतिभा की हत्या
करा देती है और यह कैसा प्रेम है जो हमें अपनी पत्नी को विकास के अवसर देना तो दूर
रहा, मिले हुये अवसरों से भी वंचित कर देने की ओर प्रवृत्त
करत है। मुझे नहीं लागता अमिताभ की समझ में मेरी बात आएगी क्योंकि दौलत की चमक
आदमी की आँखों को ही नहीं अंधा कर देती है उसकी बुद्धि और आत्मा को भी नष्ट कर
देती है...
*सिनेमा पर लिखी गई एक पुस्तक का अंश, 1984.
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