Sunday, 2 March 2014

दिग्भ्रम की आलोचना



(जनसत्ता के 16 फरवरी के अंक में श्रीभगवान सिंह का लेखआलोचना में दिग्भ्रमप्रकाशित है. जो अपनी तमाम तरह की विसंगतियों के कारण अपना उदहारण आप ही है. प्रस्तुत लेख (दिग्भ्रम की आलोचना) 22 फरवरी, 2014 को जनसत्ता को भेजा गया था. जैसी की आशंका थी इसे जगह नहीं मिली. प्रस्तुत लेख पुन: किंचित विस्तार देते हुए आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है.)



 
     रचना अपने समय का प्रतिसंसार होती है. रचनाकार अपने समय और समाज में विद्यमान भी होता है. खुद उसकी उपज भी होता है और उस समय और समाज की परिधि पर खड़ा होकर अपने समूचे समय को देखता भी है. इस तरह रचना में रचनाकार के सपने, अपने समाज को बेहतर बनाने की भविष्य दृष्टि तो निहित होती ही है. उसके अपने अंतर्विरोध भी अभिव्यक्त होते हैं जो अपने समय से अनायास उसे प्राप्त हो जाते हैं. इन अंतर्विरोधों की पहचान करना और भविष्य में रचनाकार तथा पाठक को इनसे सावधान करना आलोचना का असली काम है. लेकिन जब आलोचना ही दिग्भ्रमित करने लगे और शब्दों से इस तरह खेलने लगे कि साहित्य का विकास मार्ग पुरातनता के मोह में प्रतिगामी हो जाए तब ऎसी आलोचना अपने कर्म पथ से विचलित हो कर खुद तो कुएं या खाई का मुंह देखती ही है अपने समय और समाज के प्रति भी अकल्याणप्रद होती है. 16 जनवरी, 2014 को जनसत्ता में प्रकाशित श्रीभगवान सिंह का लेखआलोचना में दिग्भ्रमकुछ ऎसी ही परिणति को प्राप्त हुआ है. लेख की आलोचना पद्धति दिग्भ्रम पैदा करने की कोशिशों से भरपूर है.
      
श्रीभगवान सिंह साहित्य में दलित चेतना के उभार कोमार्क्सवादी सिद्धांतों के प्रचार अभियान में थोड़ी शिथिलताआने के परिणाम स्वरूप देखते हैं. जाहिर है कि यह तर्क पद्धति बहुत चालाकी से एक खास तरह की राजनीति करती है. वास्तव में इस खास राजनीतिक प्रेरणा से प्रेरित लेखक की मंशा मार्क्सवाद और दलित चेतना को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की है और फिरपरंपरा बचाओ नारेके साथ लेखक ने इन दोनों विमर्शों को अमान्य घोषित करता है. जैसा कि हर बार दक्षिणपंथी ताकतें भारतीय संस्कृति और उसकी परंपरा पर आसन्न संकट का हौव्वा खड़ा करते हुए अपने राजनीतिक हितों को साधने का सुलभ उपक्रम करती हैं तथा वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी ताकतें मानवता पर आसन्न खतरे के नाम पर जगह-जगह पर युद्ध और उनके माध्यम से नरसंहार जारी रखती हैं. हालीवुड की तमाम फिल्मों को उठा कर देख लीजिए उन फिल्मों की विषय-वस्तु दुनिया या उसके किसी हिस्से पर मंडरा रहे किसी संकट पर केंद्रित होती है जिनका समाधान अक्सर किसी उन्नत, ध्वंसकारी तकनीक द्वारा अमरीकी राष्ट्रवादी हीरो करता है. साहित्यिक चिंतन में इस तरह के काम प्रगतिशील विचार सरणियों को विदेशी बता कर, रूपात्मक सत्य, दृष्टि की तटस्थता और वस्तुनिष्ठता, भारतीय संस्कृति, देसीपन, परंपरा आदि-आदि पर आसन्न संकट की कूट रचना करते हुए  साहित्यिक राष्ट्रवादियों द्वारा किये जाते हैं. ‘दृष्टि की वस्तुनिष्ठताकी आड़ में अपने जीवन-जगत् को रचना और रचनाकार के लिए नयनाभिराम बना देने तथा जीवन-जगत् में व्याप्त आकुलता पैदा करने वाली कुरूपता, आंखों में चुभने वाली कुरूपता की पहचान करने वाली कला को एकांगी, तंगनज़री का पर्याय बताने का बहीखाता शाश्वता के मुनीमों की अपनी खासियत है. साहित्य और समीक्षा मेंइकहरापन, संकीर्णता और एकरसताका हौव्वा खड़ा करते हुए श्री सिंहअर्थ, धर्म, काम और मोक्षके औपनिषदिक-आध्यात्मिक चिंतन को महान रचनाकार और रचना की कसौटी सिद्ध करते हैं और कबीर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य में अध्यात्म की महत्ता को खासतौर से रेखांकित करते हैं. यहां स्वाभाविक तौर पर आचार्य शुक्ल का यह कथन याद आता है, ‘अध्यात्मशब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कहीं कोई जरूरत नहीं है.’ मार्क्सवाद, दलित चेतना और स्त्री-विमर्श को निशाने पर लेने से पहले श्री सिंह अपने लेख के आरम्भ में हीइकहरापन, संकीर्णता और एकरसतासे साहित्य और समीक्षा की रक्षा करने की मुद्रा अपनाते हुए रीतिकालीन कवि भूषण का उल्लेख करते हैं और कवि भूषण मेंप्रकृति की अनेकरूपताको ढूंढ निकालते हैं. जबकि आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में भूषण पर टिप्पड़ी करते हुएप्रकृतिशब्द का उल्लेख तक नहीं किया है. हां, सेनापति के प्रकृति निरीक्षण और भाषा की प्रशंसा अवश्य की है जबकि भूषण की भाषा कोअनेक स्थलों पर सदोषकहा है. भूषण के प्रति यह आग्रह क्यों? इसका उत्तर आचार्य शुक्ल की इस स्थापना में निहित है किभूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीर काव्य का विषय बनाया वे अन्यायदमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहासप्रसिद्ध वीर थे...वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं.’ अपनी इसी रूचि और आग्रह के चलते श्री सिंह आचार्य शुक्ल के उद्धरण और वाक्यांशों का अपनी सुविधानुसार उपयोग करते हैं. जैसे :
श्रीभगवान सिंह लिखते हैं-

अपवाद स्वरूप कवि भूषण को छोड़ कर सभी रीतिकालीन कवियों ने प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न-भिन्न बातों और जगत के नाना रहस्यों को अनदेखा कर जिस तरह अपने काव्य को केवल श्रृंगार रस तक सीमित कर दिया, उससे जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लक्ष्य किया है, ‘वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी, जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त हो कर सामने आने से रह गए.’
अब जरा .शुक्ल को देखें-

रीतिग्रंथों की इस परंपरा द्वारा साहित्य के विस्तृत विकास में कुछ बाधा भी पड़ी. प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न-भिन्न चिंत्य बातों तथा जगत् के नाना रहस्यों की ओर  कवियों की दृष्टि नहीं जाने पायी. वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित-सी हो गई. उसका क्षेत्र संकुचित हो गया. वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत-से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त हो कर सामने आने से रह गए.’ (उत्तर मध्यकाल, प्रकरण 1, हिदी साहित्य का इतिहास)

साफ है कि आचार्य शुक्ल अपनी उपरोक्त धारणा में संस्कृत के काव्यशास्त्र के अनुकरण में रीतिग्रंथ लिखे जाने की परिपाटी, तजन्य काव्यबोध केफैशनकी ओर संकेत करते हैं और इसी परिपाटी के चलते वे रीतिकालीन कवियों की दृष्टिबद्धता की आलोचना करते हैं. यही कारण है कि उन्होंने कवि भूषण को प्रकरण दो में रीतिग्रंथकार कवि की श्रेणी में रखा है और कहा है किरीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथशिवराजभूषणअलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया.’ ऊपर प्रस्तुत किए गए उद्धरणों में रेखांकित पदों को देखने से साफ है श्रीभगवान सिंह ने आचार्य शुक्ल के वाक्यों में से वाक्यांशों को (बिना किसी संकेत के) उड़ा लिया है. जिसे अपना बनाने के लिए एक जगह सेचिंत्यशब्द को हटा दिया गया है और एक जगह परतथाके स्थान परऔरशब्द को प्रयुक्त मात्र कर दिया है. आलोचना के क्षेत्र में हाथ की सफाई की यह बढ़िया पद्धति है!

     आलोचनात्मक दिग्भ्रम के प्रत्याखान की मुद्रा अपनाते हुए स्त्री विमर्श के बारे में श्रीभगवान  सिंह का कहना है कि ‘...स्त्री-विमर्श केवल स्त्री-पीड़ा को महत्त्वपूर्ण मानते हुए समस्त श्रेष्ठ साहित्य को पुरुषों द्वारा लिखा होने के कारण स्त्री-विरोधी सिद्ध करने पर तुला है.’ यह स्त्री विमर्श की गलत व्याख्या है. यहाँ स्त्री विमर्श को पुरुष-विरोध का पर्याय बना दिया गया है. हालांकि स्त्री विमर्श के भीतरपुरुष मात्र के विरोधकी एक धारा अवश्य मौजूद रही है. परंतु वह धारा खुद स्त्री विमर्श के भीतर ही नारीवादी महिलाओं द्वारा ही बेतरह आलोचना की शिकार हुई है. किंतु श्री सिंह उक्त तथ्य का ध्यान नहीं रखते हैं और बड़ी चतुराई से  स्त्री विमर्श को उस पहलू को चुनते हैं जिसे खुद नारीवादियों के महत्त्वपूर्ण धड़े द्वारा नकार दिया गया है. निश्चित रूप से स्त्री विमर्श के बारे में उनकी (श्री सिंह की) मंशा और टोनप्लेबॉयमैगजीन के मालिक, प्रकाशक और संपादक  ह्यू हेफ्नर की उस मंशा से मेल खाती है जिसमें उसने कहा था, ‘ये स्त्रियां हमारी स्वाभाविक शत्रु हैं. समय गया है कि इनसे युद्ध किया जाए. मैं चाहता हूं कि इनके विरुद्ध कुछ ऐसा मारक लिखा जाए कि युद्धोन्मत्त नारीवाद बिखर जाए.’(स्त्री मुक्ति के प्रश्न, ले. देवेंद्र इस्सर) जिस तरह की शाब्दिक कीमियागिरी श्री सिंह ने अपने लेख में प्रदर्शित की है उससे उनकी मंशाओं का साफ पता चलता है कि मार्क्सवाद, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसी विचार सरणियां एक षडयंत्र हैं. क्या ही अच्छा होता यदि वे इनके विकास को परंपरा के बढ़ाव उसके समृद्ध होने की प्रक्रिया के रूप में लक्षित करते.देसी परंपरा’, ‘देसी चित्तवृत्ति’, ‘देसी साहित्यजैसी शब्दावलियों का प्रयोग करकेमहानभारतीय परंपरा के सम्पूर्ण वरेण्य होने का आलोचनात्मक दिग्भ्रम रचना, परंपरा और संस्कृति को वाग्धारा की बंधी हुई नालियों में स्थिर रखने का हानिप्रद प्रयास है. ऐसे दिग्भ्रम बहुत सचेष्ट ढंग से रचे जाते हैं. जिनकी आड़ में साहित्य और समीक्षा की प्रगतिशील परंपरा और सभ्यता-संस्कृति एवं उनमें निहित परंपराओं  को मूल्यांकित करने वाले विमर्शों को विदेशी कह कर बहिष्कृत करने की कोशिश की जाती है. इसके लिए तथ्यों की कलाई मरोड़ने से भी गुरेज नहीं किया जाता है. जैसे, भूषण केप्रकृति वर्णनके संदर्भ में तथा स्त्री विमर्श को पुरुष विरोध का विमर्श घोषित करते हुए श्री सिंह ने किया है. ‘जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थियों के अनुसार होती है (आचार्य शुक्ल).आलोचक की हो तो आश्चर्य क्या!
***

http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=59540:2014-02-16-05-53-25&catid=32:2012-01-01-05-57-23

1 comment:

  1. आप का आलेख संतोषजनक है. पढ़ाने के लिए आभार . भगवन सिंह सदा से यही करते आये हैं. आगे भी यही करेंगे .

    ReplyDelete