Sunday, 2 March 2014

दिग्भ्रम की आलोचना



(जनसत्ता के 16 फरवरी के अंक में श्रीभगवान सिंह का लेखआलोचना में दिग्भ्रमप्रकाशित है. जो अपनी तमाम तरह की विसंगतियों के कारण अपना उदहारण आप ही है. प्रस्तुत लेख (दिग्भ्रम की आलोचना) 22 फरवरी, 2014 को जनसत्ता को भेजा गया था. जैसी की आशंका थी इसे जगह नहीं मिली. प्रस्तुत लेख पुन: किंचित विस्तार देते हुए आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है.)



 
     रचना अपने समय का प्रतिसंसार होती है. रचनाकार अपने समय और समाज में विद्यमान भी होता है. खुद उसकी उपज भी होता है और उस समय और समाज की परिधि पर खड़ा होकर अपने समूचे समय को देखता भी है. इस तरह रचना में रचनाकार के सपने, अपने समाज को बेहतर बनाने की भविष्य दृष्टि तो निहित होती ही है. उसके अपने अंतर्विरोध भी अभिव्यक्त होते हैं जो अपने समय से अनायास उसे प्राप्त हो जाते हैं. इन अंतर्विरोधों की पहचान करना और भविष्य में रचनाकार तथा पाठक को इनसे सावधान करना आलोचना का असली काम है. लेकिन जब आलोचना ही दिग्भ्रमित करने लगे और शब्दों से इस तरह खेलने लगे कि साहित्य का विकास मार्ग पुरातनता के मोह में प्रतिगामी हो जाए तब ऎसी आलोचना अपने कर्म पथ से विचलित हो कर खुद तो कुएं या खाई का मुंह देखती ही है अपने समय और समाज के प्रति भी अकल्याणप्रद होती है. 16 जनवरी, 2014 को जनसत्ता में प्रकाशित श्रीभगवान सिंह का लेखआलोचना में दिग्भ्रमकुछ ऎसी ही परिणति को प्राप्त हुआ है. लेख की आलोचना पद्धति दिग्भ्रम पैदा करने की कोशिशों से भरपूर है.
      
श्रीभगवान सिंह साहित्य में दलित चेतना के उभार कोमार्क्सवादी सिद्धांतों के प्रचार अभियान में थोड़ी शिथिलताआने के परिणाम स्वरूप देखते हैं. जाहिर है कि यह तर्क पद्धति बहुत चालाकी से एक खास तरह की राजनीति करती है. वास्तव में इस खास राजनीतिक प्रेरणा से प्रेरित लेखक की मंशा मार्क्सवाद और दलित चेतना को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की है और फिरपरंपरा बचाओ नारेके साथ लेखक ने इन दोनों विमर्शों को अमान्य घोषित करता है. जैसा कि हर बार दक्षिणपंथी ताकतें भारतीय संस्कृति और उसकी परंपरा पर आसन्न संकट का हौव्वा खड़ा करते हुए अपने राजनीतिक हितों को साधने का सुलभ उपक्रम करती हैं तथा वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी ताकतें मानवता पर आसन्न खतरे के नाम पर जगह-जगह पर युद्ध और उनके माध्यम से नरसंहार जारी रखती हैं. हालीवुड की तमाम फिल्मों को उठा कर देख लीजिए उन फिल्मों की विषय-वस्तु दुनिया या उसके किसी हिस्से पर मंडरा रहे किसी संकट पर केंद्रित होती है जिनका समाधान अक्सर किसी उन्नत, ध्वंसकारी तकनीक द्वारा अमरीकी राष्ट्रवादी हीरो करता है. साहित्यिक चिंतन में इस तरह के काम प्रगतिशील विचार सरणियों को विदेशी बता कर, रूपात्मक सत्य, दृष्टि की तटस्थता और वस्तुनिष्ठता, भारतीय संस्कृति, देसीपन, परंपरा आदि-आदि पर आसन्न संकट की कूट रचना करते हुए  साहित्यिक राष्ट्रवादियों द्वारा किये जाते हैं. ‘दृष्टि की वस्तुनिष्ठताकी आड़ में अपने जीवन-जगत् को रचना और रचनाकार के लिए नयनाभिराम बना देने तथा जीवन-जगत् में व्याप्त आकुलता पैदा करने वाली कुरूपता, आंखों में चुभने वाली कुरूपता की पहचान करने वाली कला को एकांगी, तंगनज़री का पर्याय बताने का बहीखाता शाश्वता के मुनीमों की अपनी खासियत है. साहित्य और समीक्षा मेंइकहरापन, संकीर्णता और एकरसताका हौव्वा खड़ा करते हुए श्री सिंहअर्थ, धर्म, काम और मोक्षके औपनिषदिक-आध्यात्मिक चिंतन को महान रचनाकार और रचना की कसौटी सिद्ध करते हैं और कबीर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य में अध्यात्म की महत्ता को खासतौर से रेखांकित करते हैं. यहां स्वाभाविक तौर पर आचार्य शुक्ल का यह कथन याद आता है, ‘अध्यात्मशब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कहीं कोई जरूरत नहीं है.’ मार्क्सवाद, दलित चेतना और स्त्री-विमर्श को निशाने पर लेने से पहले श्री सिंह अपने लेख के आरम्भ में हीइकहरापन, संकीर्णता और एकरसतासे साहित्य और समीक्षा की रक्षा करने की मुद्रा अपनाते हुए रीतिकालीन कवि भूषण का उल्लेख करते हैं और कवि भूषण मेंप्रकृति की अनेकरूपताको ढूंढ निकालते हैं. जबकि आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में भूषण पर टिप्पड़ी करते हुएप्रकृतिशब्द का उल्लेख तक नहीं किया है. हां, सेनापति के प्रकृति निरीक्षण और भाषा की प्रशंसा अवश्य की है जबकि भूषण की भाषा कोअनेक स्थलों पर सदोषकहा है. भूषण के प्रति यह आग्रह क्यों? इसका उत्तर आचार्य शुक्ल की इस स्थापना में निहित है किभूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीर काव्य का विषय बनाया वे अन्यायदमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहासप्रसिद्ध वीर थे...वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं.’ अपनी इसी रूचि और आग्रह के चलते श्री सिंह आचार्य शुक्ल के उद्धरण और वाक्यांशों का अपनी सुविधानुसार उपयोग करते हैं. जैसे :
श्रीभगवान सिंह लिखते हैं-

अपवाद स्वरूप कवि भूषण को छोड़ कर सभी रीतिकालीन कवियों ने प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न-भिन्न बातों और जगत के नाना रहस्यों को अनदेखा कर जिस तरह अपने काव्य को केवल श्रृंगार रस तक सीमित कर दिया, उससे जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लक्ष्य किया है, ‘वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी, जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त हो कर सामने आने से रह गए.’
अब जरा .शुक्ल को देखें-

रीतिग्रंथों की इस परंपरा द्वारा साहित्य के विस्तृत विकास में कुछ बाधा भी पड़ी. प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न-भिन्न चिंत्य बातों तथा जगत् के नाना रहस्यों की ओर  कवियों की दृष्टि नहीं जाने पायी. वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित-सी हो गई. उसका क्षेत्र संकुचित हो गया. वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत-से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त हो कर सामने आने से रह गए.’ (उत्तर मध्यकाल, प्रकरण 1, हिदी साहित्य का इतिहास)

साफ है कि आचार्य शुक्ल अपनी उपरोक्त धारणा में संस्कृत के काव्यशास्त्र के अनुकरण में रीतिग्रंथ लिखे जाने की परिपाटी, तजन्य काव्यबोध केफैशनकी ओर संकेत करते हैं और इसी परिपाटी के चलते वे रीतिकालीन कवियों की दृष्टिबद्धता की आलोचना करते हैं. यही कारण है कि उन्होंने कवि भूषण को प्रकरण दो में रीतिग्रंथकार कवि की श्रेणी में रखा है और कहा है किरीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथशिवराजभूषणअलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया.’ ऊपर प्रस्तुत किए गए उद्धरणों में रेखांकित पदों को देखने से साफ है श्रीभगवान सिंह ने आचार्य शुक्ल के वाक्यों में से वाक्यांशों को (बिना किसी संकेत के) उड़ा लिया है. जिसे अपना बनाने के लिए एक जगह सेचिंत्यशब्द को हटा दिया गया है और एक जगह परतथाके स्थान परऔरशब्द को प्रयुक्त मात्र कर दिया है. आलोचना के क्षेत्र में हाथ की सफाई की यह बढ़िया पद्धति है!

     आलोचनात्मक दिग्भ्रम के प्रत्याखान की मुद्रा अपनाते हुए स्त्री विमर्श के बारे में श्रीभगवान  सिंह का कहना है कि ‘...स्त्री-विमर्श केवल स्त्री-पीड़ा को महत्त्वपूर्ण मानते हुए समस्त श्रेष्ठ साहित्य को पुरुषों द्वारा लिखा होने के कारण स्त्री-विरोधी सिद्ध करने पर तुला है.’ यह स्त्री विमर्श की गलत व्याख्या है. यहाँ स्त्री विमर्श को पुरुष-विरोध का पर्याय बना दिया गया है. हालांकि स्त्री विमर्श के भीतरपुरुष मात्र के विरोधकी एक धारा अवश्य मौजूद रही है. परंतु वह धारा खुद स्त्री विमर्श के भीतर ही नारीवादी महिलाओं द्वारा ही बेतरह आलोचना की शिकार हुई है. किंतु श्री सिंह उक्त तथ्य का ध्यान नहीं रखते हैं और बड़ी चतुराई से  स्त्री विमर्श को उस पहलू को चुनते हैं जिसे खुद नारीवादियों के महत्त्वपूर्ण धड़े द्वारा नकार दिया गया है. निश्चित रूप से स्त्री विमर्श के बारे में उनकी (श्री सिंह की) मंशा और टोनप्लेबॉयमैगजीन के मालिक, प्रकाशक और संपादक  ह्यू हेफ्नर की उस मंशा से मेल खाती है जिसमें उसने कहा था, ‘ये स्त्रियां हमारी स्वाभाविक शत्रु हैं. समय गया है कि इनसे युद्ध किया जाए. मैं चाहता हूं कि इनके विरुद्ध कुछ ऐसा मारक लिखा जाए कि युद्धोन्मत्त नारीवाद बिखर जाए.’(स्त्री मुक्ति के प्रश्न, ले. देवेंद्र इस्सर) जिस तरह की शाब्दिक कीमियागिरी श्री सिंह ने अपने लेख में प्रदर्शित की है उससे उनकी मंशाओं का साफ पता चलता है कि मार्क्सवाद, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसी विचार सरणियां एक षडयंत्र हैं. क्या ही अच्छा होता यदि वे इनके विकास को परंपरा के बढ़ाव उसके समृद्ध होने की प्रक्रिया के रूप में लक्षित करते.देसी परंपरा’, ‘देसी चित्तवृत्ति’, ‘देसी साहित्यजैसी शब्दावलियों का प्रयोग करकेमहानभारतीय परंपरा के सम्पूर्ण वरेण्य होने का आलोचनात्मक दिग्भ्रम रचना, परंपरा और संस्कृति को वाग्धारा की बंधी हुई नालियों में स्थिर रखने का हानिप्रद प्रयास है. ऐसे दिग्भ्रम बहुत सचेष्ट ढंग से रचे जाते हैं. जिनकी आड़ में साहित्य और समीक्षा की प्रगतिशील परंपरा और सभ्यता-संस्कृति एवं उनमें निहित परंपराओं  को मूल्यांकित करने वाले विमर्शों को विदेशी कह कर बहिष्कृत करने की कोशिश की जाती है. इसके लिए तथ्यों की कलाई मरोड़ने से भी गुरेज नहीं किया जाता है. जैसे, भूषण केप्रकृति वर्णनके संदर्भ में तथा स्त्री विमर्श को पुरुष विरोध का विमर्श घोषित करते हुए श्री सिंह ने किया है. ‘जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थियों के अनुसार होती है (आचार्य शुक्ल).आलोचक की हो तो आश्चर्य क्या!
***

http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=59540:2014-02-16-05-53-25&catid=32:2012-01-01-05-57-23

Monday, 10 February 2014

कथामंच में दिए गए वक्तव्यों के अंश...



कथामंच में दिए गए वक्तव्यों के अंश...
(जन संस्कृति मंच के कथा समूह द्वारा आयोजित पहला कार्यक्रम ‘कथा मंच’ में वक्ताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य. कार्यक्रम स्थल: निराला सभागार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहबाद, उत्तर प्रदेश)


21/12/2013
प्रथम सत्र:
संचालन-प्रणय कृष्ण
अहमद सगीर- आज की उर्दू कहानियों में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध चेतना दिखाई देती है. इनमें औरत की आजादी,  आज के माहौल के बारूदी होने का जिक्र है. 2013 की उर्दू की कहानियों में वैज्ञानिक प्रगति के अतिवाद और मनुष्य को मशीन में बदलने की तथा गांवों के बाजार में बदलने की चिंता साफ दिखाई देती है.

कैलाश बनवासी- यह हिंदी कहानी की विविधताओं वाला दौर है और कई धाराओं के लेखक हैं और विभिन्न रुचियों वाली पत्र-पत्रिकाएँ हैं जिनमे खेमेबाजी वाली बात बढ़ चुकी है. पहले के दौर में यह सब कितना था यह सब मुझे नहीं मालूम लेकिन इधर इस खेमेबंदी में अधिक मजबूती आई है. यह इसलिए भी होता है कि लेखक अपनी सुविधा के अनुसार जगह तलाशने लगता है और फिर वहां उस मैनेजमेंट का हिस्सा बन जाता है तथा उसके (संसथान विशेषके) प्रोजेक्ट के तहत उसकी जो चीजें हैं वे निकल कर आने लगती हैं.
कहानी में विचार-शून्यता और विचारहीनता और शब्दों की बाजीगरी बढ़ी है. ये 2000 के बाद जो एक कथा पीढ़ी उभरी है, हालांकि उन्होंने अच्छी कहानियां भी लिखी हैं, में खास तौर पर यह दिखाई दे रहा है. पुरानी पीढ़ी के मुकाबले नई पीढ़ी कहानी लेखन को टेबल राइटिंग के रूप में ले रही है.

माहतलत- आज की कहानियां समस्याओं से ग्रस्त कहानियां हैं. जिनमें लेखक उन मुद्दों को उठता है वो हैं- धार्मिक आडम्बर और जातिगत समस्याएँ, आतंकवाद , बेरोजगारी, स्वाथ्य सम्बन्धी समस्याएँ, अत्याचार मतलब ऐसे मुद्दों पर कहानियां लिखी गई हैं जिन्हें पढ़ने के बाद यह लगता है कि ये कहानियां खरी उतर रही हैं.

बृजेश यादव- प्रगतिशील समीक्षा के नाम पर भी आज की तारीख में जिस औसत-बोध से हमारी आलोचना संचालित है, जो औसत-बोध कहानी पाठकों का भी है. वह औसत-बोध छोटे किसान का औसत-बोध है. वह मध्यवर्गीय चेतना से संचालित है. विश्वनाथ त्रिपाठी जी प्रगतिशील समीक्षक हैं लेकिन उनकी अपनी जो भाववादी मांग है किसान क्रांति के प्रति, वह पहले से माने हुए तर्क और पार्टी की डिमांड से संचालित होने के कारण आखिरी छलांग नामक कहानी में किसान की दुर्दशा के बयान को इसलिए वो नहीं पकड़ पाते क्योंकि उनको यह कहना है कि मजदूर क्रांति इस देश में हो ही नहीं सकती...वस्तुत: समस्या यह है कि किसान की भूमिका का मूल्यांकन करते वक्त किसान को सर्वहारा कि जगह रख कर बदलाव की जिस तरह कल्पना की जाती है, वहां किसान और मजदूर को आपस में गड्ड-मड्ड करके किसान की समस्या को उसके भौतिक यथार्थ से अलग सैधांतिक (धारणागत) मैटेरियल सेन्स से समझा जाता है.

सुरेश कांटक- आज जो लिखा जा रहा है वह समाज से कहाँ तक जुड़ा हुआ है. हम देख रहे हैं हमारा समय किस दौर से गुजर रहा है समय हमारा किस चीज की मांग कर रहा है और वह रचना जो समय संदर्भ को लेकर, समाज संदर्भ को लेकर खरी नहीं उतरती वह कहीं न कहीं समय से बेईमानी करती है. क्या हमारा अपना अंतर्द्वंद्व या व्यक्ति से लड़ाई प्रमुख है या कहीं मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और जिसके अंदर ही सारी समस्याएं समाहित हैं वह भी जरूरी है. आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ते हुए लोग हाशिए पर हैं. उनकी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं.

अवधेश प्रीत-  आज मुख्य रूप से दो तरह की कहानियां लिखी जा रही हैं- एक, अच्छी कहानियां और दूसरी, जरुरी कहानियां. मेरे विमर्श का विषय जरूरी कहानियां हैं. महत्त्वपूर्ण सवाल है कि आज क्या हमारी कहानियां वर्तमान परिदृश्य को पकड़ पा रही हैं?....
हार जीतकहानी यथास्थितिवादी सोच को मूल्यांकित करने वाली कहानी है. यह पोंगापंथियों को हमारे समय और समाज में अनावश्यक रूप से शह देने की कहानी है. ठीक इसी के बरक्स कहानी दाराशिकोह की उपनिषद्है. इतिहास को किस तरह से आज के समय में प्रासंगिक बनाया जा सकता है और इतिहास को किस तरह आज के समय के साथ खड़ा किया जा सकता है यह इस कहानी को देख कर पता चलता है.

जितेन्द्र कुमार-  बिहार का यथार्थ नरसंहार का यथार्थ है. बाथे के नरसंहार के आरोपी कोर्ट द्वारा बरी हो जाते हैं. वस्तुत: हमारी व्यवस्था अंतरविरोधों से ग्रस्त है. यह व्यवस्था जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर देती है...कहानी एगही सजनवा बिनु ए रामका शिल्प औपन्यासिक शिल्प है...इस कहानी ने मुझे काफी बेचैन किया. कहानी कि पात्र स्नेह लता शुक्ला की आत्महत्या बेचैनी पैदा करती है.

नूर जहीर- लोक कथा की मौखिक परंपरा में अभिव्यक्त यथार्थ के रंग और उनकी मारकता काफी तेज होती है. किंतु आधुनिक तकनीक के प्रभाव स्वरूप वे नष्ट हो रही हैं. उनकी तरफ हमको ध्यान देना होगा.

शिवमूर्ति- आज हमको आलोचना के औजारों को समयानुकूल बनाना होगा...बिना सरोकार के साहित्य की मूल धारा में बने रहना असंभव है. जहां सरोकार है वहीँ संघर्ष है. साहित्य में विचारधारा अनुस्यूत होनी चाहिए. जैसे चाय में चीनी. शिल्प और कथ्य का सामंजस्य ही रचना को महत्त्वपूर्ण बनाता है.

द्वितीय सत्र:
संचालन-महेश कटारे
श्रीप्रकाश मिश्र- पिछले 25 वर्ष में उपन्यास लेखन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. यह वृद्धि पश्चिमी दुनिया के वर्चस्व के प्रति प्रतिरोध के कारण हुई है. यह पश्चिम की हेजेमनी बाजारवाद की वजह से है. आज कहानियों की तुलना में उपन्यासों में यथार्थ की अभिव्यक्ति अधिक है...आदिवासी जीवन पर केन्द्रित उपन्यास मुख्यत: नगर और ग्राम समाज के द्वंद्व से लैस हैं.

शम्शुर्रहमान फारुखी-वर्तमान समय आज कई जगह अलग-अलग ढंग से है. वह हर जगह एक जैसा नहीं दिखाई देता है. आज लिखा जा रहा उपन्यास जीवन को समग्रता में समझ कर नहीं लिखा जा रहा है.

रमेशचंद मीणा- अभी तक वृद्ध जनों पर दर्जनों उपन्यास सामने आए हैं. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श पर भी पर्याप्त रचनाएँ सामने आई हैं किंतु आदिवासी उपन्यास अभी कम आए हैं. आदिवासी समाज में शिक्षा का सवाल महत्त्वपूर्ण सवाल है और पठार पर कुहरा इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण उपन्यास है...आदिवासी समाज के लिए शिक्षा बहुत जरुरी है और देश का विकास तभी संभव है जब शिक्षा गांव तक पहुचे.

अली अहमद फातमी- बड़े नावेल की तारीफ बयान करना अलग बात है किंतु बड़ा नावेल लिखना अलग बात है. इनफार्मेशन की बुनियाद पर उपन्यास नहीं लिखे जा सकते. नावेल को अपना कथ्य आलमारी रखी किताबों से नहीं से नहीं बल्कि उन आदमियों से लेना चाहिए जो आस-पास फैले होते हैं...उर्दू में 60 से 80 तक महत्त्वपूर्ण नावेल नहीं लिखे गए शायद इसका कारण यह है कि वह कलावादियों का दौर था. जिसमें सिम्बल का काफी इस्तेमाल है और सब जानते हैं कि सिम्बल का जितना अच्छा इस्तेमाल पोयट्री में सकता है उतना अच्छा इस्तेमाल नावेल में नहीं हो सकता. नैरेशन की बुनियाद पर नावेल चलता है और बिना नैरेशन, बिना यथार्थ के नावेल नहीं लिखा जा सकता.

राजेन्द्र कुमार- उपन्यास न तो हड़बड़ी में लिखा जा सकता है और न हड़बड़ी में पढ़ा जा सकता है...साहित्य में यथार्थ जरुरी है पर यथार्थ इकहरा नहीं होता.  यथार्थ का नाम कमेंट्री नहीं होता. यथार्थ कोई ठहरी हुई चीज नहीं है.
प्रेमचंद के यहां होरी की कथा मिलती है और गोबर की कथा शिवमूर्ति और मदन मोहन के यहां मिलती है...वर्तमान उपन्यास गतिशील यथार्थ को दर्ज करने में सक्षम है...समय का वर्ग चरित्र भी होता है और लेखक जब लिखता है तो वह इस वर्ग समय कि नहीं छुपा सकता. उपन्यासकार की पक्षधरता छुप नहीं सकती. उपन्यास अपने लेखक के बारे में भी होता है.

एन.आर. श्याम- तेलंगाना का सारा का सारा साहित्य आंदोलन का साहित्य है. लेखकों ने इन आंदोलनों को अपने साहित्य में दर्ज किया. तेलंगाना के कहानीकारों ने अपनी रचनाओं से संघर्ष का संकेत दिया. यहां के उपन्यास भी जल-जंगल-जमीन के सवालों को संदर्भित करते हुए लिखे गए.

22/12/2013
तृतीय सत्र:
संचालन-सुधीर सुमन
सत्यकेत्यु- आज का राजनितिक परिदृश्य ये है कि भ्रष्टाचार लोगों का खून चूस रहा है...और जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार (मोदी) है वह आज देश भर में घूम-घूम कर प्रचारित कर है जो दंगे, जो हत्याएं हुई सो हुई अब हम शांति स्थापित करेंगे और भ्रष्टाचार को ख़त्म करेंगे. अमरकांत ने इसे दशकों पहले पहचान लिया था और बहुत साफ-सुथरे तरीके से इसको अंकित कर दिया था. इतनी साफ-सुथरी दृष्टि और सजगता के कारण जब तक ऐसी परिस्थियाँ रहेंगी यह कहानी (हत्यारे) मौजूं रहेगी. यह कहानी यह भी संदेश देती है कि सिर्फ डिटेल से, विवरण से ही कहानी अपनी बात कह दे यह जरुरी नहीं है. छोटी कहानी भी अपनी बात पुख्ता तरीके से रख सकती है, बशर्ते हमारी (कहानीकार की) दृष्टि स्पष्ट हो.

योगेन्द्र आहूजा- अमरकांत अपनी कहानी हत्यारे के मनचाहे पाठ की छूट नहीं देना चाहते हैं. वे बार-बार अपने गुस्से और नफ़रत को इस कहानी में जहिर करना चाहते हैं. इसीलिए अमरकांत इस कहानी में भदेस भाषा का इस्तेमाल करते हैं. चालू अभद्र संवाद तर्कहीन, विद्रूप या बीमार दिमाग की उपज लगते हैं. ऐसा लगता है कि इस कहानी के पात्र मसखरे हैं जो दोगली भाषा में बात करते हैं जिससे उनके खतरनाक मनसूबे स्पष्ट होते हैं.

चरण सिंह पथिक- बुड़ान कहानी में एक दर्द है. विकास के नाम पर विरासत, परंपरा, संस्कृति के ख़त्म होने की बात है. जिसे पूरन हार्डी ने 2002 के पहल्रे ही पहचान लिया था. हमारे यहां सत्ता कभी विस्थापित नहीं हुई. पूरन हार्डी की कहानी में व्यक्त विस्थापन की समस्या हमारे समय कि बहुत बड़ी समस्या है...विस्थापन के कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन विस्थापित लोगों की समस्यायें अलग नहीं होतीं.

प्रियदर्शन मालवीय- बुड़ान कहानी हत्यारे कहानी की सीक्वल है. हत्यारे पूर्वपक्ष है, बुड़ान उत्तर पक्ष है. पूंजीवादी विकास हमारे यहां धर्म का रूप ले चुका है और इस विकास के खिलाफ बोलना कुफ्र है. यह विकास समाज के अपराधियों के लिए है. अब हत्यारे नहीं हत्यारे के समूह का समय है. इन विकट परिस्थितियों में बुड़ान जिजीविषा की कहानी है.

सुरेश कांटक- आज हम यहां इकट्ठा हुए हैं और बातचीत कर रहें हैं बुड़ान जैसी कहानियों पर. मित्रों! मुझे लगता है कि हम भी इसी बुड़ान में गायब होने वाले हैं. और यह कथामंच इस बुड़ान के बीच एक द्वीप के रूप में है जहां हम बैठ कर इस बुड़ान से बचने का उपाय सोच रहे हैं. हमें आशंका है की यह बुड़ान पूरे हिदुस्तान को न लील जाए. जो व्यवस्था हमारे देश में चल रही है इस व्यवस्था में सारा कुछ डूबने वाला है...अब हत्या की संस्कृति यहां सत्तानशीं है और हर जगह बुड़ान कायम करना चाहती है...
हम तन्हा रह कर जड़ता को तोड़ नहीं सकते. जड़ता को तोड़ने के लिए एक दृष्टि की जरूरत होती है.

कैलाश बनवासी- हत्यारे कहानी में किस वर्ग से हत्यारे की पहचान की जा रही है और यह जो वर्ग है पूंजीपति. उन्नत, विकसित वर्ग नहीं है. हमारे ही बीच से निकला एक लुम्पेन वर्ग है...रचनाकार वही दर्ज करेगा जो वह देखेगा...पुरन हार्डी ने छत्तीसगढ़ कि संस्कृति को बहुत बारीकी से दर्ज किया है.

महेश कटारे- हत्यारे कहानी मेरे सामने एक चुनौती की तरह आकर खड़ी हो जाती है. पहली चुनौती तो भाषा की है. हत्यारे और बुड़ान दोनों कहानियों की जो भाषा है वो समझ में आती है. कितनी बड़ी भी रचना हो यदि समझ में न आए तो बहुत मुश्किल हो जाता है और ये दोनों कहानियां समझ में आती हैं. इसलिए आज इन दोनों कहानियों का जिक्र हो रहा है और बार-बार ये समय की सीढ़ियां चढ़ती हुई स्मरण में आती रहेंगी एक लम्बे काल-खंड में...
हम मार्क्सवादियों को भी अपना भी मूल्याङ्कन करना होगा कि हमने क्यों विस्थापन के ऊपर कहानियां नहीं लिखीं और मेरा यह सवाल मुझसे भी है.

चतुर्थ सत्र:
संचालन-कैलाश बनवासी
नीलम शंकर- कहानी का शीर्षक सिगरेट वाली मजारही बहुत कुछ कह जाता है. इस कहानी में पितृसत्ता अपने कई रूपों और रंगों में स्पष्ट होती है. इसमें पितृसत्ता के कई शेड्स हैं.

हिमांशु रंजन- सिगरेट वाली मजारकहानी पितृसत्ता के पहलू को बहुत खूबसूरती से उभारती है. रचनाकार के मन में ज्यादा से ज्यादा सूचानाओं का मोह ठीक नहीं होता. जब कम सूचनाओं से , प्रतीकों से कहानी की रचना की जा सकती है तो क्या जरूरत है कि सूचनाओं का अम्बार खड़ा किया जाए. सिगरेट वाली मजारजितनी जरूरत है उतनी सूचनाओं का यह कहानी इस्तेमाल करती है और कहानी कहने का यही तरीका है. नूर की कहानी बहुत खूबसूरती से मजदूर तबके की जिंदगी को अपनी विषय-वस्तु बनाती है.

डा. सालेहा जबीं- सिगरेट वाली मजार एक ऐसे तबके की ओर इशारा करती है जो मजारों से अपना गुजरा करता है. इसमें कुछ जुमले बहुत शानदार हैं...कहानी में यह बात बहुत खूबसूरती से दर्ज की गई है कि कैसे एक मर्द जाता है और दूसरा जन्म ले रहा होता है.

अशरफ अली बेग- धर्म और समाज का जो संबंध चला आ रहा है उस पर भी यह कहानी (सिगरेट वाली मजार) टिप्पड़ी करती है...आज के दौर में जो कहानियां लिखी जा रही हैं उनमें एक विडम्बना दिखाई देती है कि कुछ कहानीकार कला को लेकर बहुत सतर्क दिखाई देते हैं...कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि वह याद रह जाए. इस लिहाज से भी नूर जहीर साहिबा की कहानी दिमाग पर नक्श रह जाती है.

नगीना जबीं- इस कहानी (सिगरेट वाली मजार) की शुरुआत एक बहुत बड़ी पालिटिक्स की तरफ इशारा करती है कि हिंदुस्तान में यदि किसी को जमीन पर कब्ज़ा करना हो तो एक छोटा सा मंदिर बना ले या मजार ले, ये बुनियादी बात है जो मुझे अपने तौर पर इस कहानी में लगी है.

अली अहमद फातमी- यहां बार-बार कहा गया कि नूर की कहानी पितृसत्ता की कहानी है. पर मैं नहीं मानता कि यह पितृसत्ता की कहानी है. यह दरअसल उस कल्चर की कहानी है जो मजार के इर्द-गिर्द परवरिश पाता है और किस तरह अपनी जीविका के लिए मजार को एक माध्यम बनाता है...इसमें कहानी को (जबरिया) स्त्री विमर्श की ओर मोड़ने की कोशिश की गई है. स्त्री विमर्श वहीँ होना चाहिए जहां उसकी जरूरत हो. दरअसल ये कहानी उस वर्ग संघर्ष की कहानी है जिन्दा रहने की कहानी है जहां मजार में लोग जिन्दा रहने का आसरा ढूंढते हैं.

शिवमूर्ति- मेरा मानना है कि लेखक को विद्वान् नहीं होना चाहिए एक आम आदमी होना चाहिए. और अपनी आम सूझ से लिखना चाहिए. लेखक को विशेषज्ञ तो कतई नहीं होना चाहिए, अगर वह विशेषज्ञ होने की तरफ लपका तो समझिए गया. नूर जी कहानी में कई आयाम दिखाई देते हैं...
जितना हम देखते हैं उतनी ही दुनिया नहीं हैं उसके भी बहुत आयाम होते हैं. साम्प्रदायिकता के जैसे अनेक रूप हैं उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के भी हजार रूप हैं.

मुरलीधर- यौनिकता कोई टैबू नहीं है. कतई जरूरी नहीं की उसे हमेशा कारपेट के नीचे रखा जाए. खास करके जब स्त्री यौनिकता का सवाल हो तब तो यह जरूरी हो जाता है क्योंकि यह स्त्री अस्मिता के सवाल से जुड़ता है. हालांकि यह पहली बार नहीं है कि कथा के गैरजरूरी प्रदेश में अल्पना जी ने कोई पहल-कदमी की हो. इस प्रश्न पर कई लोगों ने लिखा है. इसकी लम्बी परंपरा है. इस कहानी कथा के गैरजरूरी प्रदेश मेंकी संरचना थोड़ी जटिल है असम्बद्ध दिखती है...सिर्फ शिल्प की जटिलता से कहानी नहीं बनती है. इसी के चलते जो यथार्थ है उसकी जटिलता की परतों को भेदने में यह कहानी सक्षम नहीं हो पाती है.


अनीता गोपेश- लेखिकाओं आज अश्लीलता कि होड़ लगी हुई है’- इस तरह के खतरे को उठाते हुए भी अल्पना जी ने यह कहानी लिखी है. यह कहानी कथा के गैरजरूरी प्रदेश में यौनिकता कि बात को बहुत सधे हुए रूप में सामने रखती है...(अल्पना जी) विवाहोत्तर यौन-उत्पीड़न की समस्या को रेखांकित करती हैं...आज स्त्री विमर्श बहुत विकट समय में खड़ा है. आक्रामक स्त्री विमर्श एक तरफ है जो पुरुषों को दुश्मनों की तरह लेता है. लेकिन इसके बरक्स स्वाथ्य स्त्री विमर्श भी है जिसमें पुरुष की भी स्वीकार्यता है...अल्पना जी की कहानी थोड़े से बिखराव के बावजूद एक स्वागत योग्य रचना है.

अनिल यादव- नूर की कहानी निश्चित तौर पर फेमनिस्ट कहानी है. लेकिन पितृसत्ता के सामने लाचार कहानी है. कराहती, लंगड़ाती कहानी है. बहुत संक्षेप में कहा जाए तो यह कहानी बताती है कि मर्द का बच्चा मर्द ही होगा.
...चालू फैशन का जो फेमिनिज्म है कि हम किसी से कम नहीं, उससे सवाल पैदा होता कि क्या स्त्रियों की दुनिया अलग होगी...
...अगर फेमिनिज्म को किसी मंजिल तक पहुंचना तो निश्चित तौर पर उसमें ऐसे मर्द भी शामिल होंगे जो फेमिनिज्म के तर्कों को, पीड़ाओं को सिर्फ समझने ही नहीं उसको भोगने में भी साझीदार हों.  


Friday, 13 December 2013

प्रदीप सिंह की कविताएं...


(प्रदीप सिंह आइसा और जसम के सक्रिय सहयोगी रहे हैं। पत्रिकाओं में उनकी जो भी कविताएं छपी हैं, उनकी चर्चा देर तक हुई है।  फिलहाल फ़तेहपुर में एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक हैं।)



                                आदिवासी

उन्हें नहीं दी गई
बिजली, पानी, सड़क
नहीं दिया गया कभी
पेट भर भोजन
वे चुप रहे
जब तक वे चुप रहे
तब तक आदिवासी थे।
छीन ली गई उनसे
उनकी जमीन, उनका जंगल, उनकी इज्जत
और जब वे बोले उसके खिलाफ
तो नक्सलवादी हो गए।

सरकार के अत्याचार सहना
आदिवासी होना है
और उसके खिलाफ खड़े होना
नक्सलवादी।

ताबूत

हम बनाते हैं सरकार
सरकारें हमारे लिए
बनाती हैं ताबूत
उसमें ठोंकती हैं कील
आहिस्ता-आहिस्ता
इस तरह ज़िंदा ही
दफन कर दिए जाते हैं हम
अपनी ही बनाई सरकार द्वारा
घुट-घुट कर मरने के लिए।


Thursday, 21 November 2013

स्फुट : आलोक कुमार श्रीवास्तव

(यहां आलोक कुमार श्रीवास्तव द्वारा कुछ स्फुट विचार प्रस्तुत हैं. ये विचार अकादमिक ढंग से किए जाने वाले चिंतन की उपज न हो कर उस चिंता की उपज हैं जो हर दिन सवालों के रूप में आम आदमी के सामने उपस्थित होते रहते हैं. जाहिर है ये सवाल आदमी के ‘सामने’ भी होते हैं और आदमी के ‘भीतर’ भी. आलोक कुमार श्रीवास्तव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और लंबे समय तक आइसा में काम भी किया है. वैचारिक पक्षधरता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्व की खास पहचान है. आपके द्वारा किए गए अनुवाद बेहद पठनीय होते हैं. फिलहाल आप भारतीय रिजर्व बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं.)



  
एक

20 अक्टूबर 2013 को दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव में स्वतंत्र फिल्मकार नकुल साहनी द्वारा कुछ वीडियो क्लिपिंग्स प्रदर्शित की गयीं। मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स नाम से बनी इन वीडियो क्लिपिंग्स (न्यूज़ वीडियो) में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के लोनी कस्बे के एक मुस्लिम राहत शिविर में मौजूद लोगों के साथ बातचीत को दिखाया गया है। आज़मगढ़ के नेहरू हाल में मौजूद सैकड़ों लोगों ने इन्हें देखा। बातचीत को देखना और सुनना एक पीड़ादायी अनुभव रहा, लेकिन ताज्जुब की बात ये रही कि इस प्रदर्शन के बाद आयोजित खुली चर्चा के दौरान एक दर्शक ने नकुल साहनी पर एकतरफा सच दिखाने का आरोप लगाया। बेचारे नकुल साहनी क्या कहते, हम सब ऐसे आरोपों के सामने बेबस ही रह जाते हैं।


दो

मेरी चार साल की बेटी परी बड़ी गम्भीरता के साथ सोचते-सोचते कहती है - पापा, मेरी समझ में नहीं आता कि ये लड़के इतनी शैतानी क्यों करते हैं। मैं तो बिल्कुल शैतानी नहीं करती। और भी लड़कियों के नाम गिनाती है साची, तूली, भव्या, ध्याना, दीप्ति, सानवी ..... कोई भी लड़की इतना नहीं चिल्लाती जितना अभिजीत चिल्लाता है। अभिजीत मेरे और दीप्ति के खिलौने हमेशा छीन क्यों लेता है, किसी की बात क्यों नहीं सुनता? उसके मम्मी-पापा भी उसको क्यों नहीं समझाते? कार्तिक भैया इतना जिद्दी क्यों है? मैं अंधेरे में अवि भैया, अवि भैया चिल्लाती रही लेकिन अवि भैया क्यों नहीं बोला? कवि ने मुझे धक्का मारकर क्यों गिरा दिया? परी के ये सवाल भी मुझे बेबस ही कर देते हैं।


तीन

देश का युवा परिवर्तन की चाह करने लगा है। अब उसके पास परिवर्तन की चाह करने के बहुत ज़बरदस्त कारण हैं। उसके भीतर बेचैनी है, कशमकश है, मगर उसे फैसले पर पहुँचने की जल्दी भी है। जवानी में धैर्य की कमी अक्सर तकलीफ का सबब बनती है। कहा जा रहा है कि देश को कड़े फैसले लेने मे सक्षम प्रधानमंत्री चाहिए। जाहिर है इस समय भारत में एक ही आदमी प्रधानमंत्री है - नरेंद्र मोदी। एक नौजवान ने ऐसे ही मुझसे कहा - सर, नरेंद्र मोदी का मतलब सिर्फ गोधरा ही नहीं होता। आप उसके काम देखिए... खूब देखे मैंने उसके काम। गोधरा के बाद मैंने मुजफ्फरनगर भी देख लिया। विकास के झूठे आंकड़ों की पोल भी खूब खुली। गुलेल.कॉम की जासूसी वाली स्टोरी भी इसी मौके पर सामने आ चुकी है। इस पर भी मेरा नौजवान दोस्त मुझसे सवाल करता है - सर, मुझे उस एक व्यक्ति का नाम बताइये, जिसे इस देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए। मैं फिर बेबस हूँ। लाजवाब हूँ।    


चार

इस मनहूस साल में बहुत कुछ दुखद घटा हिन्दी अदब की दुनिया में। कंवल भारती को सत्ता तंत्र द्वारा परेशान किए जाने के बाद उन्होंने बचाव के लिए कांग्रेस की शरण ले ली। दलित विमर्श के लिए ये बड़े नुकसान वाली बात थी। इससे भी बहुत बड़ा नुकसान अभी-अभी हुआ पूरे हिन्दी साहित्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि की मृत्यु के रूप में। एक दलित साथी ने अगले दिन एक सवाल किया - वाल्मीकि जी की मृत्यु का समाचार अखबारों में क्यों नहीं आया सर? .... यह भी ऐसा ही सवाल है जिसका जवाब बनाना आसान नहीं है।


पाँच

सारे देश की भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में सचिन को भारत रत्न देने पर इतना हल्ला क्यों मचा रहे हैं कुछ लोग? ......यह एक बेहूदा सवाल है। अब तक मैं बहुत चुप रह चुका। अब हो सकता है बोल ही पड़ूँ।  


तो ये पाँच चीजें हैं - उग्र हिन्दू राष्ट्र के लिए अल्पसंख्यक (मुस्लिम) विरोध, पुरुष सत्ता का वर्चस्व यानी लैंगिक भेदभाव, सांप्रदायिक राजनीति, दलित की उपेक्षा और तिरस्कार यानी (मीडिया की) सवर्ण मानसिकता; और आक्रामक पूंजीवाद। बड़े संघर्ष की जरूरत है इन पांचों चीजों को खत्म करने के लिए। हमें तैयार रहना है। हर मोर्चे पर लड़ना है धैर्य के साथ। जवानी के जोश में होश खोए बगैर। खासकर स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और दलितों को। और पूंजीवाद के खिलाफ तो पूरी दुनियाँ को खड़े होना है। भारत के मध्यवर्ग के सामने फिलहाल सबसे बड़ा काम यही है। हम कब तक चुप और निरुत्तर रहेंगे अपनी बेटियों, अपने मुस्लिम और दलित मित्रों के सवालों के सामने ? और हम कब तक देश को कॉर्पोरेट पूंजी के हाथ की कठपुतली बने रहने देंगे?  


Thursday, 7 November 2013

याद किए गए साहित्यकार परमानन्द श्रीवास्तव...

इलाहबाद, 06/11/2013.
कवि, कथाकार और आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में जन संस्कृति मंच, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में स्मृति सभा का आयोजन किया गया. इस आयोजन में शहर के अनेक बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार परमानन्द जी के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए उपस्थित थे.

कार्यक्रम में उपस्थित कवि विवेक निराला ने कहा कि 'परमानन्द जी का लेखन नई पीढ़ी के लेखकों को आश्वस्ति प्रदान करता था...जिस समय कविता पर सर्वाधिक हमले हो रहे थे उस समय परमानन्द जी ने कविता के पक्ष में अपनी लेखनी उठाई.' सामाजिक कार्यकर्त्ता सीमा आजाद ने परमानन्द जी के बारे में अपने पारिवारिक अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि 'अंत तक उनकी चिंता के केंद्र में  साहित्य ही रहा...मुझे मार्क्सवाद के प्रति आकर्षित करने का श्रेय परमानन्द जी को है.'

जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण ने उनके साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान पर प्रकाश डाला. प्रणय कृष्ण ने कहा कि 'परमानन्द जी ने प्रगतिशील मूल्यों को बनाये रखते हुए  काव्यभाषा  पर विचार किया. उन्होंने न तो काव्यभाषा को धकेला और न उसे सर्वोपरि निकष बनाया. कबीर-दादू-ग़ालिब से लेकर अब तक के कवियों को समकालीन मान कर पढ़ना परमानंद जी की आलोचना पद्धति की उल्लेखनीय विशेषता थी. वे गोरखपुर में सामंती मूल्यों के बरक्स प्रगतिशील मूल्यों के प्रति समर्पित थे.'

 रामजी राय ने कहा कि 'परमानन्द जी से लोगों का एक बहस का रिश्ता था. उनके साथ एक सार्थक बहस की गुंजाईश हमेशा बनी रहती थी. वरिष्ठ आलोचक प्रो.राजेन्द्र कुमार ने परमानन्द जी को एक बेख़ौफ़ शख्सियत बताया. जो नए से नए लेखकों पर भी अपनी नजर रखता था.

इतिहासकार लालबहादुर वर्मा ने उन्हें गहरी जिजीविषा का धनी कहा. तो कथाकार दूधनाथ सिंह ने उन्हें सदैव लिखते-पढ़ते रहने वाला सजग लेखक बताया. दूधनाथ सिंह ने कहा कि 'परमानन्द जी हिंदी के क्षेत्र के अजातशत्रु थे. सुसंस्कृति उनके व्यक्तित्व का खास पहलू थी.' कार्यक्रम की अध्यक्षता कामरेड जिया उल हक़ ने की. प्रो. संतोष भदौरिया ने कार्यक्रम का संचालन किया . स्मृति सभा में सूर्य नारायण सिंह, उर्मिला जैन, उन्नयन के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र, अनीता गोपेश आदि ने अपने भावपूर्ण विचार रखे.

कार्यक्रम में कवि हरीशचन्द पाण्डेय, कवि रतिनाथ योगेश्वर, विश्वविजय, वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा, कवी श्रीरंग, कहानीकार अशरफ अलीबेग, हरिश्चंद द्विवेदी, कवि नन्दल हितैषी, अंशु मालवीय, सुधीर सिंह, पद्मा जी, उत्पला, के.के. पाण्डेय, शेष नारायण शेष, आइसा के छात्र नेता सुनील मौर्य, रघुनन्दन और रामायन राम, शशिकांत पाण्डेय आदि उपस्थित रहे.